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। कहते हैं
३३. सम्यक् वाणी (सम्मावाचा-वाचिक दुश्चरितों से विरति) तीनों ३४. सम्यक् कर्मान्त (सम्माकम्मन्तो-कायिकदुश्चरितोंसेविरति) ३५. सम्यक् आजीव (सम्मा आजीवो-जीविका सबंधी दुश्चरितों
से विरति) ३६. करुणा ) इन दोनों को अ-परिमाण (परिमाण-रहित) कहते हैं ३७ मुदिता, क्योंकि इन्हें किसी हद तक बढ़ाया जा सकता है । ३८. प्रज्ञा-इन्द्रिय (पचिन्द्रियं—अमोह) ३. १४ अकुशल चेतसिक जो सामान्यतः अकुशल-चित्तों में पाये जाते हैं, जिनमें अ. ४ मूल-भूत अकुशल चेतसिक जो सभी अकुशल-चित्तों में अनिवार्यतः
पाये जाते हैं । यथा ३९. मोह (मोहो) ४०. अ-ह्रो (अहिरीक-दुश्चरितों से लज्जा न करना) ४१. अन्-अवत्रपा (अनोत्तप्पं--कुकर्मों से त्रास न मानना) ४२. उद्धतता (उद्धच्च-चंचलता) आ. १० अकुशल-चेतसिक जो किन्हीं अकुशल-चित्तों में पाये जाते है,
किन्हीं में नहीं, यथा ४३. द्वेष (दोसो) ४४. ईर्ष्या (इस्सा) ४५. मात्सर्य (मच्छरियं-कृपणता) ४६. कौकृत्य (कुक्कुच्चं-दुश्चरित के बाद सन्ताप) ४७. लोभ (लोभो) ४८. मिथ्याधारणा (दिट्ठि-दृष्टि) ४९. मान (मानो-गर्व) ५०. कायिक-आलस्य (थीनं-स्त्यान) ५१. मानसिक आलस्य (मिद्धं, मृद्ध) ५२. विचिकित्सा (विचिकिच्छा-सन्देह)
चित्त के ८९ विभेदों में से प्रत्येक में कौन कौन से चेतसिक उपस्थित रहते हैं, इसका विस्तृत विवेचन, अनेक पुनरुक्तियों के साथ, 'धम्मसंगणि' में किया गया