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( ५७४ ) कर , बुद्ध, धर्म और संघ की वन्दना करते हुए इस श्रद्धालु राजा ने तुषित-लोक में गमन किया,यह हम ‘महावंस' के वर्णन में देख चुके हैं। उसी के समान यह यहाँ वणित है । महास्तूप का निर्माण दुट्ठगामणि ने बड़े प्रयास और रुचि से करवाया था। उसके अन्दर भगवान बुद्ध के जीवन सम्बन्धी अनेक चित्र यथा धर्म-चक्रप्रवतन महापरिनिर्वाण-प्राप्ति आदि दिखाये गये थे। महास्तुप में रखने के लिये बुद्ध-शरीर के अवशिष्ट चिन्ह वही थे जिन्हें रामगाम के कोलियों ने अपने यहाँ स्थापित किया था और जो बाद में लङ्का में लाये गये थे। दुट्ठगामणि द्वाग निर्मित स्तूपों के वर्णन के साथ ही 'थूपवंस' का वर्णन समाप्त हो जाता है ।
ऊपर के विवरण से स्पष्ट है कि लङ्का के धार्मिक इतिहास में 'थूपवंस' का बड़ा महत्व है । आज खंडहरों के रूप में भग्न या आधुनिक शहरों के नीचे विलीन प्रभुत पुगतत्व-सम्बन्धी सामग्री का वह परिचय देता है। लङ्कः की बुद्धभक्ति का भी वह परिचायक है । भारत और ल ङ्का के मधुर, धर्म-निःथित सम्बन्धों की भी वह याद दिलाता है। दमिलों द्वारा लङ्का पर किये गये आक्रमणों की याद दिला कर वह इस परिच्छेद को कुछ दुःखानुविद्ध भी करता है, भारतीय संस्कृति के अ-गोपक तत्व की कटु व्याख्या भी करता है। फिर भी मनुष्यों के लोभ ने जिमे नष्ट किया,क्षत विक्षत किया,धम्म ने उसे पुनरुज्जीवित किया,यह आश्वासन भी हमें यहाँ मिलता है । लङ्का के राजा और उनकी जनता आध्यात्मिक प्रेरणा के लिये मदा भारत की ओर देखते रहे । अनुलादेवी की प्रत्रज्या के लिये संघमित्रा बुलाई गई । बोधि-वृक्ष की डाल रोपी गई । तब से दोनों देश एक हो गये। भारत के देश-काल का, उसके गांधार, काश्मीर और महिष-मंडल का, वनवासी, अपरान्तक, महाराष्ट्र और सुवर्ण भूमि का, उसके विदिशा,रामग्राम, पावा, राजगृह, वैशाली और कपिलवस्तु का, लङ्का के इस ग्रन्थ में निरन्तर स्मरण यही दिखाता है कि बुद्ध की स्मृति के साथ इस देश की स्मृति को भी लङ्कादासियों ने अपने इतिहास में कभी भूला नहीं है । अत्तनगलुविहार वंस
'अत्तनगल विहार वंस' का दूसरा नाम 'हत्यवनगल्लविहारवंस