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कह चुके हैं कातन्त्र-व्याकरण और काशिका वत्ति (सातवीं शताब्दी) प्रधान हैं। अतः कच्चान व्याकरण का काल सातवीं शताब्दी के बाद का ही है । कच्चान-व्याकरण में ६७५ सूत्र है। इस व्याकरण के अलावा कच्चान 'महानिरुत्ति गन्ध' (महानिरुक्ति ग्रन्थ) और 'चुल्ल निरुत्ति गन्ध (संक्षिप्त निरुक्ति -ग्रन्थ) नामक दो व्याकरण-ग्रन्थों के भी ये रचयिता बताये जाते हैं।' कच्चान-व्याकरण का सहायक माहित्य काल-क्रमानुसार इस प्रकार है (१) कच्चान-व्याकरण का सबसे प्राचीन और महत्वपूर्ण भाष्य 'न्यास' है। इसी का दूसरा नाम 'मुखमत्तदीपनी'२ भी है । यह आचार्य विमलबुद्धि की रचना है, जिनका काल ग्यारहवीं शताब्दी से पहले और कच्चान-व्याकरण की रचना (सातवीं शताब्दी) के बाद था। (२) 'न्याम की टीका-स्वरूपन्यास-प्रदीप'बारहवीं शताब्दीकेअन्तिम भागमें लिखा गया। इसके रचयिता 'छपद' नामक आचार्य थे। यह बरमी भिक्षु थे, किन्तु इनकी शिक्षा लंका में हुई थी। यह सिंहली भिक्षु सारिपुत्त के शिष्योंमें सेथे ।'न्यास' पर अन्य माहित्य भी उत्तर कालीन शताब्दियों में बहुत लिखा जाता रहा । छपद ने कच्चान-व्याकरण साहित्य को एक ग्रन्थ और भी दिया । (३) सुत्त-निद्देस-- छपद-कृन कच्चान-व्याकरण की टीका-स्वरूप यह ग्रन्थ लिखा गया है । इसका निश्चित रचना काल ११८१ ई० (वृद्धाब्द १७१५) है। (४) स्थविर संघरक्खिन (संघरक्षित) द्वारारचित 'सम्बन्ध-चिन्ता'। यह ग्रन्थ कच्चान-व्याकरण के आधार पर पालि शब्द-योजना या शब्द-संबंधका विवेचन करता है । स्थविर संघरक्खिन सिंहली भिक्षु मारिपुन के गिप्यो में से थे, अतः निश्चित रूप से इनका काल १-वींशताब्दी का अंतिम भाग ही है। इस प्रकार ये छपद के समकालिक
१. गन्धवंस, पृष्ठ ५९ (मिनयेफ द्वारा जर्नल ऑव पालि टैक्सट सोसायटी में
सम्पादित) सुभूति ने इन ग्रन्थों को यमक की रचना बताया है । देखिये
उनको नाममाला, पृष्ठ २८ (भूमिका) २. गन्धवंस, पृष्ठ ६०; सुभूति : नाममाला, पृष्ठ ९ (भूमिका) ३. सत्रहवीं शताब्दी के मध्य में बर्मी भिक्षु दाठानाग द्वारा रचित 'निरुत्तसार
मंजूसा' नामक 'न्यास' की टीका प्रसिद्ध है। देखिये मेबिल बोड : दि पालि लिटरेचर ऑव बरमा, पृष्ठ ५५; सुभूति : नाममाला, पृष्ठ १० (भूमिका) ४. सुभूति : नाममाला, पृष्ठ १५; मेबिल बोड : पालि लिटरेचर ऑफ बरमा, पृष्ठ १७