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( ६२७ ) नहीं कि यह काम अशोक ने जाति-धर्म-देश-निविशेष प्राणि-मात्र के कल्याणार्थ ही किया। उसी के द्वारा मानवता की दुन्दुभी विश्व में चारों ओर बजवाई गई। वौद्ध धर्म उसी समय से विश्व-धर्म बन गया।
इस संक्षिप्त विवरण के बाद अव हमें उस महत्त्वपूर्ण साक्ष्य को देवना है जो अनोक के अभिलेख पालि-भापा के स्वरूप और उसके साहित्य के विकास के विषय में देते है। अशोक के अभिलेखोंमें तत्कालीन लोक-भापा (मागधी भाषा) के कितने म्वरूप दृष्टिगोचर होते हैं और उनका तथाकथित पालि-भाषा मे क्या सम्बन्ध है, इसका विस्तृत विवेचन हम पहले अध्याय में कर चुके है । निरनार (पच्छिम) जौगढ़ (पूर्व) और मनमेहर (उत्तर) के अभिलेखों की भापा का तुलनात्मक अध्ययन और अनेक विद्वानों के एतद्विपयक मतों की समीक्षा वहीं को जा चुकी है । अतः यहाँ हम केवल पालि साहित्य के विकास पर इन अभिलेखों से जो प्रकाश पड़ता है उसी का विवेचन करेंगे । इस दृष्टि से अशोक के भाव गिलालेख का अन्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है। विषय-गौरव की दृष्टि से भी यह लेख अत्यन्त महत्वपूर्ण है। अतः उसे यहाँ उद्धृत करना हो अधिक उपयुक्त होगा । ( भाव शिलालेख)
पियदसि लाजा मागचं संघ अभिवादनं आहा, अपावाधतं च फासु विहालतं चा। विदितं वे भन्ते आवतके हमा बुधसि धम्मसि संघसिति गलवेच पसादे च एके चि भंते भगवता बुधेन भासिते सवे से मुभासिते वा एचु खो भंते हमियाये दिसेया मंच में चिलठितीके होसतोति अलहामि हकं तं वतवे । इमानि भंते धंम पलियायानि विनयममुकसे, अलिय वसानि, अनागतभयानि, मुनिगाथा, मोनेय सूते, उपतिमासिने ए च लाहुलोवादे मुसावादं अधिगिच्य भगवता बुधेन भासिते । एतान भंते धंमपलियायानि इच्छामि । किं ति बहुके भिखुपाये च भिखुनिये चा अभिखिनं सूनयु चा उपधालेयेयु चा । हेवं हेवा उपासका च उपासिका चा एतेनि भंते इमं लिखापयामि अभिहेतं म जानंताति । ( हिन्दी-अनुवाद )
प्रियदर्शी गजा मगध के संघ को अभिवादन करता है और उनका कुशलमंगल चाहता है । भन्ते ! आपको मालूम ही है कि बुद्ध, धर्म और संघ के