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( ६३३ ) में उपदिष्ट किया गया है । लक्खण-सुत्त (दोघ ३१७) के अनुसार “चक्रवर्ती,. धार्मिक, धर्मराज, चारों दिशाओं को जीतकर, सागर-पर्यन्त इस पृथ्वी (भारतभूमि) को दंड और शस्त्र से नहीं, किन्तु धर्म से जीतकर उसके ऊपर शासन करता है।" अशोक को धम्म-विजय का, उसकी प्राणि-अविहिंसा का, जाति-धर्म-निर्विशेष, संपूर्ण मनुष्य-जाति की सेवा के उसके उच्च आदर्श का, इसके अलावा और अर्थ हो क्या हो सकता था ? अतः यह निर्विवाद है कि अशोक की प्रेरणा का मूलाधार बुद्ध-धर्म हो था । किस प्रकार धम्म-दान की प्रशंसा करते हुए अशोक ने धम्मपद की एक गाथा (२।१) को प्रतिध्वनित किया है, अथवा किस प्रकार उसके नवं शिलालेख के काल्सी, शहवाजग़ढ़ी और मनसेहर के संस्करण के अन्तिम भाग की शैली 'कथावत्थु' से मिलती जुलती है, यह हम पहले दिखा चुके हैं । अतः यह निःसंदेह है कि अशोक के शिलालेखों का साक्ष्य उसके बुद्धवचनों या पालि-त्रिपिटक के उस रूप से परिचित होने के पक्ष में है जो हमें आज प्राप्त है और जिसमें से 'गृह-विनय' के ही लोक सामान्य आदर्श को लेकर अशोक ने स्वयं (अपने गृहस्थ शासक होने की अवस्था में) उसको अपनाया और उसी को अपनी प्यारी जनताओं को भी सिखाया।
अशोक के अभिलेखों के अलावा अन्य प्रभूत पालि अभिलेख-साहित्य भी हमें आज प्राप्त है । यह बहुत पुराना भी है और उसकी परम्परा ठीक अर्वाचीन काल तक चलती आ रही है । तीसरी और दूसरी शताब्दी ईसवी पूर्व से लेकर ठीक अठारहवीं शताब्दी तक के पालि अभिलेख हमें प्राप्त है । यद्यपि इन सब अभिलेखों का साहित्यिक महत्व और ऐतिहासिक साक्ष्य अशोक के अभिलेखों के समान महत्वपूर्ण नहीं है, किन्तु इनमें से अधिकांश पालि-साहित्य के विकास की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है। उसकी विकास परम्परा के विभिन्न
१. चक्कवत्ती धम्मिको धम्मराजा चातुरन्तो विजिता वीसो इमं पठावि सागरपरियन्तं अदण्डेन असत्येन अभिविजिय अज्झावसति । लक्खणसुत्त (दोघ ३१७)