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मौमा के बाहर के देशों में पालि अपनी जेष्ठ भगिनी संस्कृत से भी कहीं कही प्रभावशीलता में अधिक बढ़ गई है । इसका कारण है पालि का तथागत की सन्देश-वाहिका होना । अपने इस गौरव के कारण ही सचमुच पालि जैसी प्रादेशिक भाषा को भी विश्वजनीन होने तक का सौभाग्य मिल गया है, जो संभवतः आज तक अंशतः संस्कृत को छोड़कर अन्य किसी भारतीय भाषा को नहीं मिला।
___पालि और विश्व-साहित्य जर्मन कवि-दार्शनिक गेटे ने साहित्य को विश्व का मानवी-करण कहा है। दुनिया का शायद ही कोई साहित्य इस कसौटी पर खरा उतर सके जितना पालि साहित्य ।
भारतीय भाषाओं में यदि किसी के भी साहित्य में विश्व जनीन तत्व सबसे अधिक हैं तो निश्चय हो पालि में । गत पृष्ठों में पालि साहित्य के विवेचन में यदि लेखक ने अधिक प्रमाद नहीं किया है तो उससे स्पष्ट हो गया होगा कि पालि माहित्य एक धार्मिक संप्रदाय (स्थविरवाद बौद्ध धर्म) का ही माहित्य नहीं है, बल्कि वह जाति-धर्म-निविशेष विश्व-मानव का साहित्य है, जो विश्वजनीनता की भावनाओं से अनुप्राणित है । यही कारण है कि भारतीय भूमि से उद्भूत होकर उसका विकास समान रूप से ही अन्य देशों में भी हुआ है । संकुचित राष्ट्रीय आदर्शों की अभिव्यक्ति उसके अन्दर नहीं है । वह मनुष्य मात्र की समस्याओं को लेकर उनके समाधान के लिए खड़ा है जिनमें देश या राष्ट्र का वैसा कुछ भेद नहीं होता। बुद्ध-धर्म कैसे विश्व धर्म हो गया इसका बहुत कुछ रहस्योद्घाटन पालि-साहित्य में ही हो जाता है । यहां कोई ऐसा विशिष्ट विश्वास नहीं, कोई ऐमा कर्मकांड का विधान नहीं, कोई ऐसा देवत्व का आदर्श नहीं, जो मनुष्य-मनुष्य के बीच भेद डाल सके । यहां केवल नैतिक आदर्शवाद है, मनुष्य को मनुष्य बनाने का प्रयत्न है, और यह सब है मनुष्य को मनुष्य समझकर मनुष्य के द्वारा मनुष्य को मार्ग दिखाकर । यदि धर्म के नाम पर मानवता का अपलाप ही आज हमारे अनेक अनर्थों का कारण है, तो पालि-साहित्य हमें आज उसके प्रतिकार करने के लिए आह्वान करता है। यदि मनुष्यता के गठ