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( ६३४ ) पहलुओं को ममझने के लिए वे प्रकाशगह का काम देते हैं। हम इन सात मुख्य अभिलेखों का यहाँ उल्लेख करेंगे (१) साँची और भारत के अभिलेख (२) माग्नाथ के कनिष्ककालीन अभिलेख, (३) मौंगन (बरमा) के दो स्वर्ण-पत्र लेख (४) मब्ज़ा (प्रोम-बरमा) का पांचवीं-छठी शताब्दी का म्वर्ण-पत्र लेख (५) मब्ज़ा (प्रोम-बरमा) के बोबोगी पेगोडा में प्राप्त खंडित पाषाण-लेख (६) १४४२ ई० का पेगन (वरमा) का अभिलेख, और (७) गमण्य-देश (पेग-बरमा) के राजा धम्मचेति का १४७६ ई० का प्रसिद्ध कल्याणीअभिलेख ।
साँची और भारहुत के अभिलेख
प्रायः सभी पुरातत्वविदों का इस विषय में एक मत है कि साँची और भारहुत के स्तूप तीसरी-दूसरी शताब्दी ईसवी पूर्व के है। इन स्तूपों की पापाण वेष्टनियों पर जो लेख उत्कीर्ण हैं और प्राचीन बौद्ध गाथाओं के जो चित्र अंकित है, वे भारतीय पुरातत्व की तो अमूल्य निधि हैं ही, पालि-त्रिपिटक की प्राचीनता और प्रामाणिकता को दिखाने के लिए भी उनका प्रमाण अन्तिम और पूर्णतम रूप से निश्चित है। हम पहले लिख चुके हैं कि इन स्तूपों के लेखों में भिक्षुओं के विशेषण-स्वरूप 'मुनन्तिक' 'पेटकी' 'धम्मकथिक ‘पञ्जनेकायिक' 'भाणक' जैसे शब्दों का प्रयोग किया गया है, जिससे स्पष्ट है कि जिस समय ये लेख लिखे गये थे बुद्ध वचनों का "पिटक” 'सुत्त' 'पंच निकाय' आदि में वर्गीकरण प्रसिद्ध था और उसका संगायन करने वाले (भाणक) भिक्षु भी पाये जाते थे । अतः पालि त्रिपिटक प्रायः अपने उसी विभाजन में जिसमें वह आज उपलब्ध है, तोसरी-दूसरी शताब्दी ईसवी पूर्व भी पाया जाता था, यह निश्चित
१. सांची और भारत के अभिलेखों के अध्ययन के लिए देखिये विशेषतः वाडुआ
और सिंह “भारहुत इन्सक्रिप्शन्स" कलकत्ता १९२६; में से : साँची और इट्सरिमेन्स लन्दन १८९२, मार्शल : ए गाइड टू साँची, कलकत्ता १९१८; हिन्दी में अभी इस विषयक विशेषतापूर्ण अध्ययन नहीं किया गया।