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( ६२५ ) शिलालेख में उसने कहा है “मैंने यह प्रबन्ध किया है कि प्रत्येक समय, चाहे उस समय में खाता होऊँ, चाहे अन्तःपुर में रहूँ, चाहे शयनागार में रहें, चाहे उद्यान में रहूँ, सब जगह ही प्रतिवेदक (पेशकार) जनता के कार्य की सूचना मुझे दें । मैं जनता के कार्य सब जगह करूँगा । यदि मैं स्वयं आज्ञा दं कि अमुक कार्य किया जाय और महामात्रों में उसके विषय में कोई मतभेद उपस्थित हो अथवा मन्त्रिपरिषद् उसे स्वीकार न करे तो हर घड़ी और हर समय मुझे सूचना दी जाय क्योंकि मैं कितना ही परिश्रम करूँ और कितना ही राज्य-कार्य कहूँ, फिर भी मुझे पूर्ण सन्तोष नहीं होता । मैं जो कुछ प्रयत्न (पराक्रम) करता हूँ, वह इसलिये कि प्राणियों के प्रति जो मेरा ऋण है उससे उऋण हो जाऊँ और यहाँ कुछ लोगों को सुखी करूँ और परलोक में उन्हें स्वर्ग का अधिकारी बनाऊँ। अत्यधिक प्रयत्न (पराक्रम) के बिना यह कार्य कठिन है । जिस प्रकार मैं अपने पुत्रों का हित और सुख चाहता हूँ उसी प्रकार में लोक के ऐहिक और पारलौकिक हित
और सुख की कामना करता हूँ।" इसी प्रकार अपने चौथे स्तम्भ-लेख में अशोक ने घोषणा की है "जिस प्रकार कोई मनुष्य अपनी सन्तान को निपुण दाई के हाथ सौंपकर निश्चिन्त हो जाता है और सोचता है कि यह धाय मेरे बालक को सुख देने की भरपूर चेष्टा करेगी उसी प्रकार प्रजा के हित और सुख के लिये मैंने ‘रज्जुक' नाम के कर्मचारी नियुक्त किये हैं।" इन वाणियों से अशोक के कार्य औरनीति का पता लगसकता है । अहिंसा के सिद्धान्त को वह व्यावहारिक राजनीति के साथ समन्वित करने की कितनी क्षमता रखता था यह उसके उस अभिलेख से स्पष्ट होता है जो उसने सतत उपद्रव करने की ओर प्रवणता रखने वाली उत्तरपच्छिमी सीमा की जंगली जातियों को सम्बोधित करते हुए उनके प्रदेश में अंकित करवाया था, “सीमान्त जातियाँ मुझ से भयभीत न हों, मुझ पर विश्वास रखें और मेरे द्वारा सुख प्राप्त करें, कभी दुःख न पावें और विश्वास रखें कि जहाँ तक क्षमा का व्यवहार हो सकता है। राजा हम लोगों के साथ क्षमा का व्यव
सर्वलोकहितत्पा य च किं चि" (शिलालेख ६, गिरनार संस्करण), (नहीं है निश्चय ही सब लागों के हित से अधिक उपादेय काम)
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