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लब्ध है, तीन शाखाओं या संप्रदायों में विभक्त है (१) कच्चान-व्याकरण और उसका उपकारी व्याकरण-साहित्य (२) मोग्गल्लान-व्याकरण और उसका उपकारी व्याकरण-साहित्य (३) अग्गवंसकृत सद्दनीति और उसका उपकारी व्याकरण-साहित्य । लंका और बरमा में ही इस प्रभूत पालि व्याकरण-संबंधी साहित्य का प्रणयन सातवीं शताब्दी के बाद से हुआ है। अब हम उपर्युक्न तीनों संप्रदायों की परम्परा का अलग अलग विवेचन करेंगे । कच्चान-व्याकरण' और उसका उपकारी साहित्य
'कच्चान-व्याकरण' (या कच्चायन-व्याकरण-कात्यायन--व्याकरण) पालि साहित्य का प्राचीनतम व्याकरण है । इसका दूसरा नाम 'कच्चायन'गन्ध' (कात्यायन-ग्रन्थ ) भी है। इस व्याकरण के रचयिता का बुद्ध के प्रधान गिप्य महा कच्चान (महाकात्यायन) से कोई सम्बन्ध नहीं, इसे बौद्ध विद्वान् भी स्वीकार करते हैं। इसी प्रकार पाणिनीय ब्याकरण के वार्तिककार कात्यायन (तृतीय शताब्दी ईसवी) से भीये भिन्न हैं, ऐसा भी निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है । नेतिपकरण और पेटकोपदेस के रचयिता कच्चान से भी व्याकरणकार कच्चान भिन्न हैं। व्याकरणकार कच्चान यदि बुद्धघोष के पूर्वगामी होते तो यह असम्भव था कि कच्चान-व्याकरण जैसे प्रामाणिक पालि-व्याकरण का वे अपनी व्याख्याओं में कहीं भी उद्धरण नहीं देते। इस निषेधात्मक साक्ष्य के अलावा अन्य स्पष्ट साक्ष्य भी कच्चान-व्याकरण के बुद्धघोष के काल से उत्तरकालीन होने के दिये जा सकते है। कच्चान ने अपने व्याकरण में सर्व वर्मा के कातन्त्र व्याकरण का अनुगमन किया है। उन्होंने स्पष्टतापूर्वक पाणिनि व्याकरण का उसकी काशिका-वृत्ति के साथ अनुसरण किया है । काशिका-वृत्ति की रचना का समय सातवीं शताब्दी है । अतः यह निश्चित है कि कच्चान-व्याकरण भी मातवीं शताब्दी के पूर्व का नही हो सकता। स्वयं कच्चान-व्याकरण में ही उसके संस्कृत सम्बन्धी ऋण को स्वीकार किया गया है । इस प्रकार सूत्र १।११८ में कहा गया है 'परसमापयोगे। इसकी व्याख्या करते हुए उसकी वृत्ति (वृत्ति) में कहा गया है 'याच पन सक्कतगन्धेसु समा ....आदि' । इन 'संस्कृत ग्रंथों ' (सक्कत गन्धेमु) जैमा हम अभी
१. डा० सतीशचन्द्र विद्याभूषण द्वारा सम्पादित एवं अनुवादित, कलकत्ता
१८९१; डा० मेसन ने भी इस ग्रन्थ का सम्पादन किया है। २. सुभूति : नाममाला, पृष्ठ ६ (भूमिका)