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( ६२२ ) ये तीन प्राणी भी नहीं मारे जायँगे ।' मृगया और विहार-यात्राओं के स्थान पर उसने धर्म-यात्राएं करना प्रारम्भ किया, क्योंकि अब उसे जीवन की गम्भीरता का ज्ञान हो चुका था। उसने देख लिया था कि संसार के सुख-भोग , प्रतिष्ठा और बड़प्पन, परलोक में कुछ काम नहीं आते । अशोक यद्यपि वौद्ध था, किन्तु सम्प्रदायवाद उसके हृदय में नहीं था । विश्व का होने के लिये ही वह बुद्ध का हुआ था । ब्राह्मण और जैन साधुओं को भी वह बौद्धों के समान ही दान देता था और उनके तीर्य स्थानों के भी समान आदर के साथ ही दर्शन करता था। अपने बारहवें शिलालेख में अशोक ने धार्मिक सहिष्णुता का मर्मस्पर्शी उपदेश दिया है। उसका कहना है कि मची धर्मोन्नति का मूल वाक्संयम है (इदं मलं वचि गुति)। मनुष्य अपने धर्म की स्तुति और दूसरे के धर्म की निन्दा न करे । जो अपने सम्प्रदाय की भक्ति के कारण अपने ही धर्म वालों की प्रशंसा करताहै और अन्य धर्मानुयायियों की निन्दा करता है वह वास्तव में अपने सम्प्रदाय को बहुत हानि पहुंचाता है। वह इस प्रकार अपने धर्म को क्षीण करता है और पर-धर्म का अपकार करता है। लोग एक दूसरे के धर्म को मुनें और उसका सेवन करें। सब धर्म वाले बहुश्रुत हों और उनका ज्ञान कल्याणमय हो । “प्रियदर्शी राजा चाहता है कि सब धर्म वाले सर्वत्र मेल-मिलाप मे रहें । वे सभी संयम और भाव-शुद्धि चाहते हैं। मन्प्यों के ऊँच-नीच विचार और ऊंच-नीच अनुराग होते है । कोई अपने धर्म का पूरी तरह और कोई अंगमात्र पालन करेंगे। जिसके यहाँ देने को बहुत दान नहीं है, उसमें भी संयम, भाव-शुद्धि, कृतज्ञता और दृढ़ भक्ति तो अवश्य हो ही सकते हैं।"४ मर्वधर्म-ममभाव का इससे अधिक प्रभावशाली उपदेश विश्व-इतिहास में नहीं दिया गया। अशोक ने भारत और उसके बाहर ग्रीम आदि देशों में इस विश्वधर्म का प्रचार करने के लिय जो महनीय कार्य किया वह उसके दूसरे और तेरहवें
१. सेअज अदा इयं धमलिपी लिखिता तिनियेव पानानि आलभियंति--दुबे मजलाएके मिगे। से पि चु मिगे नो धुवं । एतानि पिचु तिनि पानानि पछा नो
आलभियिसंति । शिलालेख १ (जौगढ़) २. शिलालेख ८ ३. शिलालेख १० ४. शिलालेख १२