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ठोक नहीं है । इसमें सन्देह नहीं कि पुरुषार्थ तो मनुष्य को स्वयं ही करना होता है और पर्याप्त हृदय-मंथन के बाद उपयुक्त चित्त-भूमि भी उसे ही तैयार करनी होती है। यह सब अशोक ने भी किया था। कलिंग-युद्ध के बाद उसके हृदय में धार्मिक पवित्रता और शान्ति के लिये उत्कट अभिलाषा (तिव्र धम्मवय धम्मकसट) उत्पन्न हुई थी। परन्तु कौन जानता है कि इतना होने पर भी अशोक को यदि स्थविर (या श्रामणेर) न्यग्रोध न मिलते तो 'बिखरे हुए बादल की तरह, वह विनष्ट नहीं हो जाता । अतः अशोक को बुद्ध-शासन का प्रकाश अवश्य मिला था, जिसके लिये उसने अपने शिलालेखों में पर्याप्त कृतज्ञता भी प्रकाशित की है। भाव गिलालेख में उमने मगध के भिक्षु-संघ का श्रद्धापूर्वक अभिवादन किया है, उनके कुशल-मंगल की कामना की है और कहा है, "भन्ते ! आपको मालूम ही है कि बुद्ध, धर्म और संघ के प्रति मेरे हृदय में कितना आदर और श्रद्धा है । भन्ते ! भगवान् बुद्ध ने जो कुछ कहा है, सब सुन्दर ही कहा है ।" कलिंग-युद्ध अशोक के राज्याभिषेक के आठवें वर्ष में हुआ था, और उसके बाद ही उसने न्यग्रोध नामक भिक्षु मे उपासकत्व की दीक्षा ली थी। उसके बाद ही तो अशोक नियमित रूप से बौद्ध गृहस्थ-गिष्य (उपासक) हो गया। अपने 'धर्म तथा शील में प्रतिष्ठित (धम्मम्हिसीलम्हि तिट्ठन्तो) होने की बात अशोक ने अपने छठे शिलालेख में भी कही
था जिसे अशोक ने अपने स्वतन्त्र विचार के परिणामस्वरूप उद्भावित किया था और उसका बुद्ध-धर्म से, जैसाकि वह त्रिपिटक के अनेक ग्रन्थों में निहित है,
कोई संबंध नहीं है । देखिये उनका अशोक : पृष्ठ ५९-६६ । १. जिस व्यक्ति से अशोक को बुद्ध-मत की दीक्षा मिली, उनका नाम स्थविर
वाद परम्परा के अनुसार न्यग्रोध था। 'दीपवंस' के वर्णन के अनुसार न्यग्रोध स्थविर थे; 'समन्त पासादिका' में उन्हें स्थविर और श्रामणेर दोनों ही कहा गया है। महावंश (५।६४-६८) के अनुसार वे केवल श्रामणेर थे। चाहे स्थविर हों, चाहे श्रामणेर, भिक्षु न्यग्रोध एक कुशल योगी अवश्य थे, जिन्होंने अपने व्यक्तित्व से अशोक को आकृष्ट कर लिया। 'दिव्यावदान' की महायानी परम्परा में अशोक के गुरु का नाम स्थविर समुद्र कहा गया है, जो उतना
प्रामाणिक नहीं है। २. यद्यपि पालि-वृत्तान्त के अनुसार अभिषेक के चौथे वर्ष अशोक ने बुद्ध-मत की
दीक्षा ली (चतुत्थे संवच्छरे बुद्ध-सासने पसीदि)