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( ६०२ ) का विकास समकालिक होने के कारण पाणिनीय व्याकरण में कुछ ऐसे प्रयोग भी दृष्टिगोचर होते हों जो उस समय की साहित्यिक भाषा (संस्कृत) और लोक भाषा (पालि) में समान रूप से प्रतिष्ठित हों । अतः बुद्धघोप ने ऐसे प्रयोगों को पाणिनीय व्याकरण से न लेकर संभावतः पालि-त्रिपिटक से ही लिया होगा, ऐसा मानना भी अधिक समीचीन जान पड़ता है । यहां तक भी कहा जा सकता है कि उनकी अनेक निरुक्तियां भी त्रिपिटक और विशेपतः अभिधम्म-पिटक के एतत्संबंधी विशाल भांडार पर ही आश्रित है । यद्यपि बुद्धघोष सेपहले पारिभाषिक अर्थों में पालि में व्याकरण या निरुक्ति-गास्त्र (पालि-निरुत्ति--पालि त्रिपिटक के शब्दों की व्याकरण-सम्मत व्याख्या) न भी रहा हो, किन्तु त्रिपिटक के शब्दों की व्याख्या (वेय्याकरण) के लिए कुछ नियम तो अवश्य ही रहे होंगे। सुत्त-पिटक के प्राचीनतम अंशों में भी 'ब्राह्मण' 'श्रमण' 'भिक्षु' 'तथागत' आदि शब्दों की जो निरुक्तियां और व्युत्पत्तिलब्ध अर्थ किये गये है उनसे यह बात आसानी से समझ में आ सकती है । धम्मपद में महाप्राज्ञ भिक्षु के लिए यह आवश्यक माना गया है कि वह 'निरुक्ति और पदों का ज्ञाता' हो और 'अक्षरों के सन्निपात' अर्थात् शब्द-योजना मे परिचित हो२ । इससे भी यही प्रकट होता है कि शब्दों की निरुक्ति और व्याकरण संबंधी साधारण नियमों की कोई परम्परा पालि-साहित्य के प्राचीनतम युग में भी रही अवश्य होगी। संभवतः इसी परम्परा का प्रवर्तन हमें नेत्तिपकरण और पेटकोपदेस में मिलता है । फिर भी बौद्ध अनुश्रुति का . यह सामान्य विश्वास कि भगवान् बुद्ध के प्रधान शिष्य महाकच्चान (महाकात्यायन) ने भी एक पालि व्याकरण की रचना की थी, तत्संबंधी साहित्य के अभाव में ठीक नहीं माना जा सकता । इसी प्रकार बोधिसत्त और सब्बगुणाकार नामक दो प्राचीन व्याकरण भी, जिनका नाम वौद्ध परम्परा में सुना जाता है, आज उपलब्ध नहीं है । आज जो व्याकरण-साहित्य पालि का हमें उप
१. यह इससे भी प्रकट होता है कि बुद्धघोष ने शब्द-निरुक्ति करने वाले त्रिपिटक के अंशों, विशेषतः अभिधम्म-पिटक, को 'वेय्याकरण' कहा है। देखिये "सकलं अभिधम्म-पिटकंतं वेय्याकरणं ति वेदितब्वं" सुमंगलविलासिनी, भाग
प्रथम, पृष्ठ २४ (पालि टैक्सट्स सोसायटी का संस्करण) २. धम्मपद २४११९