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एक टीका भी थी जिसका उल्लेख कई बार महावंश-टीका (ग्यारहवीं-तेरहवीं शताब्दियों के बीच रचित) में किया गया है ।
राजाधिराजविलासिनी
१८ वीं शताब्दी के बरमी राजा वोदोपया (बुद्धप्रिय) की प्रार्थना पर लिखा गया एक गद्य-ग्रन्थ है। इसकी कहानियों का आधार प्रधानतः जातक ही है, यद्यपि अट्ठकथा तथा वंश-साहित्य से भी लेखक ने पर्याप्त सामग्री ली है । संस्कृत के व्याकरण और ज्योतिष शास्त्र से भी लेखक का पर्याप्त परिचय था, यह भी उसके विद्वत्तामय वर्णनों से विदित होता है ।
उपर्युक्त ग्रन्थों के अतिरिक्त कुछ अल्प महत्व के भी ग्रन्थ कथा-साहित्य पर इस उत्तरकालीन युग में लिखे गये। इनकी प्रेरणा का मुख्य आधार जातक ही रहा, यह तो निश्चित ही है। इस प्रकार पन्द्रहवीं शताब्दी में आवा (बरमा) निवासी रट्ठसार ने कुछ जातकों का पद्यबद्ध अनुवाद किया । तिपिटकालंकार ने १६ वीं शताब्दी में वेस्मन्तर जातक का पद्यबद्ध अनुवाद किया। अठारहवीं शताब्दी में 'मालालंकारवत्थु' नामक वुद्ध-जीवनी भी किसी बरमी भिक्षु ने लिखी । जातक-अट्ठकथा और वंश-साहित्य के बाद इस दिशा में मौलिक कुछ नहीं किया गया, यह हम इस सब कथा-साहित्य के पर्यवेक्षण स्वरूप कह सकते है । पालि का व्याकरण-साहित्यःउसके तीन सम्प्रदाय
पालि-साहित्य के इतिहास में व्याकरण का विकास बहुत बाद में चलकर हुआ। बुद्धदन, वुद्धघोष और धम्मपाल के समय तक अर्थात् पाँचवी शताब्दी ईमवी तक हमें किमी पालि व्याकरण या व्याकरणकार का पता नही चलता।
१. मेबिल बोड : दि पालि लिटरेचर ऑव बरमा, पृष्ठ ७८ २.-३. मेबिल बोड : दि पालि लिटरेचर ऑव बरमा, पृष्ठ ४३-५३ ४. इम ग्रन्थ का विशप बिग्रंडेट ने अंग्रेजी अनुवाद भी किया है। देखिये सेक्रेडबुक्स
ऑव दि ईस्ट, जिल्द ११, पृष्ठ ३२ (भूमिका) में डा० रायस डेविड्स द्वारा प्रदत्त सूचना ।