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( ६१४ ) वैय्याकरणों में करनी होगी।' भारतीय मूल स्रोत से इतने अलग रह कर भी इन बरमी और सिंहली आचार्यों ने संस्कृत के समकालिक पालि-भाषा का कितना मुन्दर और मनोयोगपूर्वक अध्ययन किया है, इसे देख कर आश्चर्यान्वित रह जाना पड़ता है । सांस्कृतिक एकता की इससे अधिक गहरी बुनियाद कभी डाली गई हो, इसका इतिहास साक्ष्य नहीं देता। यह एकता राजाओं के दरबारों में न डाली जाकर भिक्षु-परिवेणों में डाली गई। इसीलिये वह इतनी स्थायी भी हुई है । एक ही ग्रन्थ (मोग्गल्लानपञ्चिका-पदीप) का अंशतः पालि और अंशतः सिंहली में लिखा जाना, भारत और सिंहल के उस गौरवमय सम्बन्ध का सूचक है, जिसकी नींव बौद्ध धर्म ने डाली थी और जिसे उसके साहित्य ने दृढ़ किया है। भारत और स्वयं मध्य-मंडल (शास्ता की विचरण-भूमि ! ) में ही पालि-अध्ययन के प्रति गहरी उदासीनता को देख कर इन दूरस्थित बौद्ध बन्धुओं के प्रति श्रद्धा से मस्तक झुक जाता है। कारण, इन्होंने ही धम्म की ज्योति को प्रकाशित रक्खा है, इन्होंने ही ज्ञान के दीपक को हम तक पहुंचाया है । उनका पालि-व्याकरण'सम्बन्धी प्रभूत कार्य तो इसका एक बाह्य साक्ष्य मात्र है । पालि कोश : अभिधानप्पदीपिका एवं एकक्खर कोस __ पालि-साहित्य में केवल दो प्रसिद्ध कोश हैं, मोग्गल्लान-कृत 'अभिधानप्पदीपिका' ३ और बरमी भिक्षु सद्धम्मकित्ति ( सद्धर्मकीर्ति )-कृत 'एकक्खर
१. पालि महाव्याकरण, पृष्ठ पचास (वस्तुकथा) २. वस्तुतः हमसे अधिक पालि-भाषा और उसके व्याकरण का अध्ययन तो
उन पाश्चात्य विद्वानों ने ही किया है जो बौद्ध धर्म से प्रभावित हए हैं। उनके इस संबंधी कार्य और उनकी व्याकरण-संबंधी रचनाओं के परिचय के लिए देखिये गायगर : पालि लिटरेचर ऐंड लेंग्वेज, पृष्ठ ५९-६०; लाहा : हिस्ट्री
ऑव पालि लिटरेचर, जिल्द दूसरी, पृष्ठ ६३८-६४०; लाहा ने पाश्चात्य विद्वानों के साय साथ, भारतीय विद्वानों के भी इस संबंधी कार्य का विवरण दिया है। बाद का प्रकाशन होने के कारण, खेद है, 'पालि महाव्याकरण' (भिक्षु जगदीश काश्यप कृत) का उल्लेख यहां नहीं किया जा सका। पालि व्याकरण साहित्य पर भिक्षु जी की यह हिन्दी को महत्त्वपूर्ण देन है । ३. सुभूति द्वारा सिंहली लिपि में संपादित, कोलम्बो १८८३; नागरी लिपि में