________________
( ६१३ ) गुरु नामक बरमी भिक्षु ने की' । डे जॉयसा ने इस ग्रन्थ का रचना-काल १६५६ ई० माना है।
(७) कारकपुप्फ मंजरी--पालि शब्द-योजना पर लिखित यह रचना केंडी (लंका) के अंतरगमवंडार राजगुरु नामक लेखक की है। वहाँ के राजा कीर्ति श्री राजसिंह के शासन काल (१७४७-८०) में यह रचना लिखी गई। 3 (८) सुधीरमुखमंडन---यह रचना पालि-समास पर है।
इमके भी लेखक 'कारकपूप्फमंजरी' के समान ही है। (९) नयलक्खणविभावनी--बरमी भिक्षु विचित्ताचार (विचित्राचार) ने १८वीं शताब्दी के उत्तर भाग में इस ग्रन्थ की रचना की।" (१०-१२) सद्दबिन्दु (नारदथेर), सद्दकलिका, सद्दविनिच्छय आदि अनेक ग्रन्थ पालि-व्याकरण पर लिखे गये है, जिनका पूरा विवरण यहाँ नहीं दिया जा सकता।
लंका और बरमा में छठी या सातवीं शताब्दी से लेकर ठोक उन्नीसवीं शताब्दी तक पालि-व्याकरण सम्बन्धी जो गहरी तत्परता और उसके परिणामस्वरूप उत्पन्न महान् ग्रन्थ-राशि हम देखते हैं, जिसका किंचित् दिग्दर्शन ऊपर किया जा सका है, उसका वास्तविक महत्त्वाकंन क्या है ? निश्चय ही पालि-व्याकरण का अध्ययन इन देशों में उस समय किया गया जब पालि जीवित भाषा नहीं रही थी। अतः पिटक और अनुपिटक साहित्य एवं संस्कृत-व्याकरण, यही इनके प्रधान आधार रहे । स्वभावतः हो उनमें वह भाषावैज्ञानिक तत्त्व नहीं मिल सकता, जो आधुनिक भाषा-विज्ञान के विद्यार्थी को तृप्त कर सके । किन्तु 'न्यास', 'रूप-काश्यप सिद्धि', 'सदनीति' और 'वालावतार' जैसे व्याकरण पांडित्य की दृष्टि से किसी भी साहित्य के व्याकरणों से टक्कर ले सकते हैं। निश्चिय ही जैसा भिक्षु जगदीश काश्यप ने कहा है, मोग्गल्लान की गिनती पाणिनि, चान्द्र, कात्यायन आदि महान्
१. मोबिल बोड : पालि लिटरेचर ऑव बरमा, पृष्ठ २९ । २. केटेलाग, पृष्ठ २७ । ३. जॉयसा : केटे लोग, पृष्ठ २४ । ४. जॉयसा : केटेलाग, पृष्ठ २८ । ५. जॉयसा : केटेलाग, पृष्ठ २५; देखिये गायगर : पालि लिटरेचर ऐंड लेंग्वेज,
पृष्ठ ५८ भी।