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है । भारतीय साहित्य और इतिहास की ही नहीं, विश्व-संस्कृति के इतिहास की भी वह मूल्यवान् सम्पत्ति है। मात्रा में स्वाभाविक रूप से अल्प होते हुए भी यह साहित्य अपनी उदात्त और गम्भीर वाणी, स्वाभाविक और सरल शैली, एवं जीवन के गम्भीरतम पहलुओं और अनुभवों पर निष्ठित होने के कारण उसी महत्ता को लिये हुए है, जिसे हम उपनिषत्कालीन ऋषियों की वाणी, बुद्ध-वचनों, मध्यकालीन सन्नों के उद्गारों या आधुनिक काल में महात्मा गाँधी की सहज, आत्म-निःसृत वाणी से सम्बन्धित करते है । पालि का अभिलेख-साहित्य ई० पू० तीसरी शताब्दी मे पन्द्रहवीं शताब्दी ईसवी तक मिलता है । अशोक के शिलालेख उसकी उपरली काल-सीमा और बरमा के राजा धम्मचेति के प्रसिद्ध कल्याणीअभिलेख उसकी निचली काल-सीमा निश्चित करते हैं। इन काल-कोटियों से वेष्टित प्रसिद्ध पालि अभिलेख-साहित्य यह है, अशोक के शिलालेख, साँची और भारत के अभिलेख सारनाथ के कनिष्क कालीन अभिलेख, मौंगन (बरमा) के दो म्पर्णपत्र-लेख, बोबोगी पेगोडा (बरमा) के खंडित शिलालेख, प्रोम (बरमा) के बीस स्वर्णपत्र-लेख, पेगन के १४४२ ई० के अभिलेख, कल्याणी-अभिलेख । इनमें अशोक के शिलालेख सब के सिरमौर है और काल-क्रम में भी वे सर्व प्रथम आते हैं।
अशोक के शिलालेख
अशोक के शिलालेख उत्तर में हिमालय से दक्षिण में मैसूर तक और पूर्व में उड़ीसा में पच्छिम में काठियावाड़ तक पहाड़ी चट्टानों और पत्थर के विशाल स्तम्भों पर उत्कीर्ण मिलते है। इन शिलालेखों का प्रधानतः तीन दृष्टियों से बड़ा महत्त्व है । (१) इन शिलालेखों में अशोक ने अपने शब्दों में अपनी जीवनी का वर्णन किया है । जीवनी किमी स्थूल अर्थ में नहीं । अशोक ने यहाँ अपने आन्तरिक जीवन के परिवर्तन का, अहिंसा के अपने प्रयोगों का, जीवन के अपने गम्भीरतम अनुभवों का. मादी से मादी भाषा में. बड़ी स्पष्टता और मच्चाई के साथ, वर्णन किया है । (२) अशोक-कालीन इतिहास को जानने के लिये ये शिलालेख प्रकागगृह है । पालि-साहित्य के अन्य वर्णनों की अपेक्षा इन शिलालेखों का साक्ष्य इतिहास-लेखको को मदा अधिक मान्य रहा है। निश्चय ही ये शिलालेख स्वतः प्रमाण-सिद्ध हैं और इन्ही के आधार पर अशोककालीन इतिहास का निर्माण किया गया है । (३) अशोक के शिलालेखों से पालि भाषा के स्वरूप और उसके