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( ६०१ ) जहाँ तक जात हुआ है आचार्य बुद्धघोष ने भी अपनी व्याख्याओं में किसी प्राचीन पालि व्याकरण का आश्रयन लेकर पणिनीय अष्टाध्यायी का ही लिया है । 'विमुद्धि-मग्ग' में उनके द्वारा की हुई 'इन्द्रिय' शब्द की व्याख्या इसका सर्वोत्तम उदाहरण है। 'विसुद्धि-मग्ग' के मोलहवें परिच्छेद इन्द्रियसच्च निद्देसो' (इन्द्रिय
और सत्य का निर्देश) में आता है “को पन नेसं इन्द्रियट्ठो नामाति ? इन्दलिंगट्ठो इन्द्रियट्ठो, इन्ददेसितलो इन्द्रियट्ठो, इन्ददिठ्ठट्ठो इन्द्रियट्ठो, इन्दमिट्ठट्ठो इन्द्रियट्ठो, इन्दजुट्ठट्ठो इन्द्रियट्ठो'। निश्चय ही यहां पाणिनीय अष्टाध्यायी व्याकरण का यह मूत्र प्रतिध्वनित है “इन्द्रियं इन्द्रलिंग, इन्द्रदृष्टं, इन्द्रजुष्टं, इन्द्रदत्तम्, इतिवा” (५। २। ९३) । इसी प्रकार पाणिनीय सूत्र ३।३।११ मुत्तनिपात की अट्ठकथारे में प्रतिध्वनित हुआ है। दोनों निरुक्तियाँ आपम में शब्दशः इतनी मिलती हैं कि आचार्य बुद्धघोष ने पाणिनीय व्याकरण का आश्रय लिया है, इम निष्कर्ष का प्रतिवाद नहीं किया जा सकता। इसी प्रकार पाणिनि ने 'आपनि' शब्द का प्रयोग प्राप्ति' के अर्थ में किया है। आचार्य बुद्धघोप ने इस विषय में भी उनका अनुसरण कर इस शब्द का उसी अर्थ में प्रयोग ‘ममन्तपामादिका' (विनय-पिटक की अट्ठकथा) में अनेक बार किया है । यहां हमारा यह कहना है कि यह प्रयोग पाणिनीय व्याकरण के प्रभावम्वरूप उतना नहीं भी माना जा सकता, क्योंकि पालि-त्रिपिटक के स्वयं 'स्रोत आपनि गब्द में यह प्रयोग रकवा हुआ है। यह संभव है कि पालि और संस्कृत
१. विसुद्धिमग्ग १६।४ (धर्मानन्द कोसम्बी द्वारा सम्पादित देव नागरी संस्करण) २. जिल्दपहली, पृष्ठ २३ (पालि टैक्स्ट सोसायटी का संस्करण); इसी प्रकार विसुद्धिमग्ग ७५८ (कोसम्बी जी का संस्करण) में “वण्णागमो वण्णविपरिययो" अक्षरशः काशिका' का उद्धरण है, जिसे बुद्धघोष ने प्राचीन संस्कृतव्याकरण की परम्परा से लिया है। ३. इस मत की स्थापना बड़ी योग्यता के साथ डा० विमलाचरण लाहा ने की है।
देखिये उनका 'दि लाइफ एंड वर्क ऑव बुद्धघोष', पृष्ठ १०४-१०५; हिस्ट्री ऑव पालि लिटरेचर, जिल्द दूसरी, पृष्ठ ६३२-३३; मिलाइये जर्नल ऑफ पालि टैक्स्ट सोसायटी, १९०६-०७, पृष्ठ १७२-७३ ।। ४. 'दि लाइफ एंड वर्क ऑव बुद्धघोष', पृष्ठ १०५; हिस्ट्री ऑव पालि लिटरेचर, जिल्द दूसरी, पृष्ठ ६३३ ।