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सिंहली संस्करण में वह इसी नाम से छपा है। तेरहवीं शताब्दी के मध्य भाग की यह गद्य-पद्य मिश्रित रचना है । इसमें ११ अध्याय है और इसकी सबसे बड़ी विशेषता इसकी सरल, स्वाभाविक वर्णन-शैली है। प्रथम आठ परिच्छेदों में लंकाधिपति सिरिसंबोधि (श्रीसंबोधि) का वर्णन है । अन्तिम तीन परिच्छेदों में उन अनेक विहारों के निर्माण का वर्णन है, जो उपर्युक्त राजा के अन्तिम निवासस्थान पर बनाये गये थे। 'अत्तनगल्ल' या 'अत्तनगलु' नामक स्थान पर निर्मित विहार इनमें अधिक प्रसिद्ध होने के कारण, इसी के आधार पर इस ग्रन्थ का नाम 'अत्तनगलुविहारवंस' पड़ा है । सिंहली भिक्षु अनोमदस्सी के अनुरोध पर, जिन्हें पराक्रमबाहु द्वितीय (१२२९-२२४६ ई०) ने, महावंस ८६-३७ के अनुसार, यह विहार समर्पित किया था, यह रचना लिखी गई थी। इसके लेखक के नाम आदि का कुछ पता नहीं चलता । दाठवंसर __'दाठावंस' की रचना तेरहवीं शताब्दी के आदि भाग में सिंहली भिक्ष सारिपुन के शिष्य महास्थविर धर्मकीर्ति (धम्मकित्ति महाथेर) ने की। यह भिक्षु संस्कृत, मागधी भाषा (पालि), तर्कशास्त्र, व्याकरण, काव्य औरआगम आदि में निष्णात थे। इनका छन्दों पर अगाध अधिकार था, यह 'दाठावंस' में प्रयुक्त नाना छन्दों से विदित होता है। 'दाठा-वंस' बुद्ध के दाँत-धातु की कथा है। इसका दूसरा नाम ‘दन्तधातुवंस' भी है । 'दाठावंस' की विषय-वस्तु बहुत कुछ ‘थूपवंस' के समान ही है। उसके समान यहाँ यद्यपि गौतम बुद्ध के
१. गायगर : पालि लिटरेचर एंड लेंग्वेज, पष्ठ ४४ २. रोमन लिपि में डा० रायस डेविड्स द्वारा जर्नल ऑव पालि टैक्स्ट सोसायटी १८८४, में सम्पादित । देवनागरी लिपि में डा० विमलाचरण लाहा द्वारा सम्पादित एवं अंग्रेजी में अनुवादित, पंजाब संस्कृत सीरीज १९२५ । सिंहली लिपि में असमतिस्स द्वारा सम्पादित , केलनिय १८८३ । ३. देखिये जर्नल ऑव पालि टैक्स्ट सोसायटी, १८८६, पृष्ठ ६२ ।