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चुके हैं। किस प्रकार 'दीपवंस' 'महावंस' आदि के धर्म प्रचार कार्य का विवरण, जिसके आधार पर ही इन उत्तरकालीन-वंश-ग्रन्थों ने अपने वर्णन ग्रथित किये हैं, साँची और भारत के स्तूपों से समर्थित प्राप्त करता है, यहभी हम वहाँ दिखा चुके हैं । अशोक और उसके समकालीन लङकाधिपति देवानं पियतिस्स के बीच पार-स्परिक भेंटोंके आदान-प्रदानका वर्णन करने के बाद 'धूपवंस' में महेन्द्रादि भिक्षुओं में धर्म-प्रचार कार्य का वर्णन किया गया है । देवानं पिय तिस्स के बौद्ध धर्म स्वीकार कर लेने के बाद उसकी भतीजी अनुलादेवी को प्रव्रज्या ग्रहण करने की इच्छा हुई । इस विधि को सम्पन्न कराने के लिये सम्राट् अशोक की प्रव्रजित पुत्री संघमित्रा भारत से बुलाई गई । वह वोधिवृक्ष की डाली लेकर वहाँ पहुँची है । अनुला देवी की प्रव्रज्या के बाद देवानं पिय तिस्स सम्पूर्ण लङ्का द्वीप (तम्ब - पण दीप) में एक एक योजन के फासले पर स्तूपों का ताँता फैला दिया । इन स्तूपों में रखने के लिए तथागत के शरीर में अवशिष्ट चिन्हों को उसने श्रामर सुमन को भेज कर अपने मित्र देव प्रिय राजा अशोक मे मँगाया जिसे उसने बुद्ध द्वारा प्रयुक्त भिक्षा पात्र में रखकर अपने कल्याणमित्र के पास आदर पूर्वक भेजा था । देवानं पिय तिस्स के बाद दमिलों द्वारा लङ्का के सताये जाने का वर्णन है । यह वर्णन 'महावंस' के समान ही है लङका के इतिहासों-ग्रन्थों में इसकी निरन्तर पुनरावृत्ति इसकी सत्यता की सूचक है । राजा दुट्ठगामणि इन दमिलों को परास्त कर लङ्का को एक अभिन्न राजनैतिक और सांस्कृतिक सूत्र में बाँध दिया है । 'लङक - दीपं एकछत्तमकासि | लङका द्वीप में उसने एक छत्र राज्य की स्थापना की । जिस प्रकार 'महावंस' के छुट्गामणि को एक राष्ट्रीय नेताके रूप में चित्रित किया - गया है, वही बात यहाँ भी पाई जाती है । दमिलों और उनके नेता एलार की दुट्ठ- गामणि के हाथ पराजय आदिके ऐतिहासिक वर्णनोंके लिए इस ग्रन्थ का 'महावंस' आदि की अपेक्षा भी अतिरिक्त महत्त्व है, इसमें सन्देह नहीं । राजा दुट्ठगामणि ने ९९ विहार बनवाये, जिनमें मरीचवट्टि, लोहाप्रासाद और महास्तूप बड़े निर्माण कार्य थे । किस प्रकार महास्तुप पर छत्र चढ़ने से पूर्व ही उसकी मृत्यु हो गई और अपने छोटे भाई को उसे पूरा करने का आदेश दे कर, भिक्षु संघ को विहार को समर्पित कर तथा रोग-शय्या पर पड़े हुए ही स्तूप की तीन बार प्रदक्षिणा