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वर्णन किया गया है । जैसा अभी कहा जा चुका है 'धूपवंस' में 'महावंस', 'समन्तयासादिका', 'निदान - कथा' आदि की अपेक्षा नवीन कुछ नहीं है ।' देवानं पिय तिस्स के काल से लेकर दुगामणि के काल तक का वर्णन तो प्रायः शब्दाः 'महावंस' पर ही आधारित है । लेखक ने (स्तुपों के चारों ओर ) व्यवस्थित कर उसे एक नया रूप अवश्य दे दिया है । उसकी विषय-वस्तु का कुछ संक्षिप्त विवरण यहाँ अपेक्षित होगा ।
ग्रन्थ के आरंभ में लेखक ने बताया है कि पूर्ववर्ती पालि वर्णनों को पूर्णता देने के लिए ही उसने इस ग्रन्थ की रचना की है। उसके बाद उसने बताया है कि चार प्रकार के व्यक्ति स्तूपार्ह है, यथा तथागत, प्रत्येक बुद्ध ( व्यक्तिगत रूप ने ज्ञानी, किन्तु लोकों के उपदेष्टा नहीं) तथागत के शिष्य, और राज- चत्रदर्नी । 'जिस चैत्य में इनमें से किसी के शरीर के अवशिष्ट चिन्ह रखे जायें वही 'स्तुप'
( थूप ) है | इसके बाद गौतम बुद्ध के पूर्ववर्ती वृद्धों का विस्तृत वर्णन है । उनके सम्बन्ध में जो स्तुप बनाये गये उनका भी वर्णन है । यह सब इतना पौराणिक है कि इसका वर्णन करना यहाँ अप्रासंगिक होगा । ग्रन्थ के दूसरे भाग से लेखक ने बुद्ध जीवनी का वर्णन किया है और तीसरे या अन्तिम भाग में उनके शरीर चिन्हों के ऊपर निर्मित स्तूपों का । भगवान् बुद्ध के महापरिनिर्वाण के बाद उनके शरीर का दाह संस्कार- जिस प्रकार किया गया उसका यहाँ बिलकुल उसी प्रकार वर्णन है जैसा महापरिनिव्वाण - सुत्त में । अतः उसकी यहाँ पुनरावृति करने की आवश्यकता नहीं । महापरिनिव्वाण सुन के मूल आधार पर ही यहाँ बताया गया है कि भगवान् की धातुओं को बाँटने के लिए कुशीनारा के मल्लो, मगध के अजातशत्रु, वैशाली के लिच्छवियों, कपिलवस्तु के शाक्यों, अल्लकप्प के बुलियों, रामगाम के कोलियों, वेळदीपक के एक ब्राह्मण और पावा के मल्लों आपस में झगड़ा होने ही वाला था कि द्रोण नामक ब्राह्मण के सामयिक शब्द (शास्ता शान्तिवादी थे, उनके धातुओं पर इस प्रकार का झगड़ा उचित नही) को मानकर उन्होंने उन्हें आठ भागों में विभक्त कर लिया, जिन पर आठ महागों का निर्माण राजगृह, वैशाली, कपिलवस्तु, अल्लकप्प, रामगाम, वेटदीप, पावा - और कुशीनारा, इन आठ स्थानों में किया गया । रामगान के स्तूप में निहित धातुएँ ही बाद में सिंहल ले जाई गई । इनका इतिहास इस प्रकार है । स्थविर