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( ५८९ ) . अन्तर्मन को इन गाथाओं में प्रवाहित किया है, जिसके विषय में महाभारतकार ने कहा है
अस्मिन् महामोहमये कटाहे सूर्याग्निना रात्रिदिवेन्धनेन,
मासर्तुदर्वीपरिघट्टनेन भूतानि काल: पचतीति वार्ता । 'तेलकटाहगाथा' शतक-काव्य की शैली पर लिखी गई रचना है । अतः उसमें नैतिक ध्वनि प्रधान है। फिर भी काव्यमयता का उसमें अभाव नही है। वह एक सुन्दर रचना है जो बुद्ध-धर्म के मूल सिद्धान्तों को एक भावनामय भिक्षु की पूरी तन्मयता और मार्मिकता के साथ उपस्थित करती है । ९८ गाथाएँ ९ वर्गो या भागों में विभक्त हैं, जिनके नाम हैं, (१) रतनत्तय (तीन रत्न-बुद्ध, धर्म, संघ) (२) मरणानुस्सति (मरण की अनुस्मृति) (३) अनित्यलक्खण (अनित्यता का लक्षण) (४) दुक्खलक्खण (५) अनत्त लक्खण (अनात्म का लक्षण (६) असुभ लक्खण (७) दुच्चरित-आदीनवा (दुराचार के दुष्परिणाम (८) चतुरारक्षा (चार आरक्षाएँ) (९) पटिच्च समुप्पाद (प्रतीत्य समुत्पाद) इस विषय-सूची से यह देखा जा सकता है कि बुद्ध-धर्म के सभी महत्वपूर्ण विषय इन गाथाओं में आ गये हैं। किन्तु सब से बड़ी बात तो ग्रन्थकार की अपने विषय के साथ तल्लीनता है, जिसके दर्शन प्रत्येक गाथा में होते है । अनात्म-संज्ञा पर यह उक्ति देखिये
पोसो यथा हि कदलीसु विनिब्मजन्तो, सारं तदप्पमपि नोपलभेय्य काम । खन्धेस पञ्चसु छळायतनेसु तेसु,
सुजस किञ्चिदपि नोपलभेय्य सारं ॥ गाथा ६० (जिस प्रकार केले के तने को उधेड़ते हुए मनुष्य उसमें कुछ भी सार न पाये, उसी प्रकार इन शून्य पंचस्कन्धों और छ: आयतनों में भी कुछ सार नहीं है) प्रतिकूल-मनसिकार (गीता के शब्दों में 'दुःखदोषानुदर्शनं') पर,
गंडूपमे विविधरोगनिवासभूते, काये सदा रुधिरमुत्तकरीसपुण्णे ।