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वाचिस्सर, सुमंगल और धम्मकित्ति के बाद किया गया है। अतः गायगर न यह अनुमान लगाया है कि वे भी उपर्युक्त भिक्षुओं के समान सिंहली स्थविर सारिपुत्त के शिष्य थे। 'जिनचरित' के अन्तिम पद्यों में लेखक ने कहा है कि उन्होंने इस ग्रन्थ की रचना राजा विजयबाहु द्वारा निर्मित परिवेण में की। गायगर ने इससे अनुमान किया है कि यहाँ लेखक को लंका का राजा विजयबाहु तृतीय (१२२५ ई०-१२२९ ई०) अभिप्रेत था। उन्होंने आगे यह भी अनुमान किया है कि विजयवाहु तृतीय मेधंकर का समकालीन था, क्योंकि उसी हालत में उसकी प्रशंसा का कुछ अर्थ हो सकता है। इतने अनुमानों के बाद गायगर ने यह निष्कर्ष निकाला है कि मेधंकर विजयबाहु तृतीय के समकालीन और भिक्षु सारिपुत्त के शिष्य थे। उन्होने मेधंकर और वाचिस्सर का एक ही समय माना है।' जहाँ इतने अनुमानों के लिए अवकाश है वहाँ हमें यह भी आश्चर्य नहीं करना चाहिए कि डुरोइसिल ने उपर्युक्त विजयबाह को विजयबाहु द्वितीय माना है जो सन् १९८६ ईसवी में गद्दी पर बैठा था और जो लंका के प्रसिद्ध गजा पराक्रमबाहु का उत्तराधिकारी था । विजयबाहु से तात्पर्य हम चाहे किसी विजयबाहु से लें, 'जिनचरित' के लेखक ने तो सिर्फ इतना कहा है कि विजयबाहु द्वारा निर्मित परिवेग में उसने 'जिनचरित' की रचना की। अतः समकालीनता का आरोप इतना आवश्यक नहीं जान पड़ता। इसलिए 'गन्धवंस' और 'सद्धम्मसंगह' के वर्णन, जो मेधंकर को भुवनेकबाहु प्रयम (१२७७ ई०---१२८८ ई०) के समकालीन बतलाने के पक्षपाती है, 'जिनचरित' के वर्णन के विरोधी नहीं कहे जा सकते । अतः मेधंकर को भुवनेकबाहु प्रथम (१२७७ ई० --१२८८ ई०) का ही समकालीन मानना अधिक युक्तियुक्त जान पड़ता है। पज्जमधु
१०४ गाथाओं में शतक ढंग को रचना है। वुद्ध-स्तुति इसका विषय है। प्रथम ६९ गाथाओं में बुद्ध की सुन्दरता का वर्णन है, शेप में उनके ज्ञान की प्रशंसा है। शैली कृत्रिम और काव्योचित रसात्मकता से रहित है। कम से कम अपने नाम (पज्ज्मधु-पद्यमधु) को वह सार्थक नहीं करती। संस्कृत का बढ़ता हुआ प्रभाव भी
१. पालिलेंग्वेज एंड लिटरेचर, पृष्ठ ४२ । २. जिनचरित (डुरोइसिल का संस्करण, रंगून १९०६) पृष्ठ ३ (भूमिका) ३. गुणरत्न द्वारा जर्नल ऑव पालि टैक्स्ट सोसायटी १८८७ पृष्ठ १-१६ में सम्पादित; देवमित्त द्वारा भी सम्पादित, कोलम्बो १८८७ ।