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दसवाँ अध्याय काव्य, व्याकरण, कोश, छन्दःशास्त्र, अभिलेख आदि पालि काव्य
पालि का काव्य-साहित्य उतना विस्तृत, प्रौढ़ और समृद्ध नहीं है, जितना संस्कृत का या बौद्ध संस्कृत साहित्य का भी । कालिदास या अश्वघोष की सी काव्य-परम्परा यहाँ नहीं मिलती। निश्चय ही यदि काव्य का अर्थ मानव-जीवन के व्यापक, गहन और मार्मिक अनुभवों की, शब्द और अर्थ की निर्व्याज सुन्दरता के साथ (सात्थं सव्यञ्जनं) 'बहुजन हिताय' अभिव्यक्ति ही है, तब तो सम्पूर्ण 'तेपटिक बुद्ध-वचन' ही सर्वोत्तम काव्य हैं । यह भगवान् बुद्धदेव का वह शाश्वत
और अनन्त सौन्दर्यमय काव्य है, जिसका जीवन में साक्षात्कार कर लेने पर मनुष्य के लिये जरा और मरण ही नहीं रह जाते । 'देवस्य काव्यं पश्यन् न जजार न मीयते ।' जो पवित्र सौन्दर्य हिमगिरि में नहीं है, जो निष्पापता उषा में नहीं है, जो गहनता महासमुद्र में नहीं है, संक्षेप में जो काव्यत्व विश्व में अन्यत्र कहीं नहीं है, वह ज्ञानी (बुद्ध) के एक स्मित में है, तथागत के एक ईर्यापथ में है, सम्यक सम्बुद्ध के एक शब्द में है। पालि ने इस सब को ही तो प्रस्फुटित किया है । अतः वह काव्यत्व में हीन है, ऐसा कौन कहेगा ? जब हम पालि के काव्यसाहित्य का विवेचन करते हैं और उसे संस्कृत की अपेक्षा कम उन्न कहते हैं, तो हमारा तात्पर्य त्रिपिटक-गत काव्य या काव्यत्व से नहीं होता, बल्कि काव्यशिल्पियों की उन रचनाओं से होता है जो उन्होंने बौद्ध विषयों को आधार मान कर पालि भाषा में की हैं। इस प्रकार की रचनाएँ प्रधानतः लङ्का और अंशतः बरमा में दसवीं शताब्दी से लेकर पन्द्रहवीं शताब्दी तक और उसके बाद तक भी होती रहीं । इन रचनाओं की विषय-वस्तु त्रिपिटक से ही ली गई है। त्रिपिटक में प्राप्त नमूनों का ही कुछ संशोधन और परिवर्द्धन के साथ छन्दोबद्ध संस्करण