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५७. वया आकाशानन्त्यायतन (आकाश अनन्त है, ऐसे आयतन की भावना)
अ-संस्कृत है ? ५८. क्या निरोव-समापत्ति (निरोव-समाधि, जिसमें चित्त की वृत्तियों का
पूर्णत: निरोध हो जाता है) अ-संस्कृत है ? अन्धकों और उतरापथकों
की मान्यता। ५९. क्या आकाश अ-संस्कृत है ? उत्तरापथक और महीशासकों की मान्यता। ६०-६१. क्या आकाश, चार महाभूत, पाँच इन्द्रिय और कायिक कर्म दृश्य है ?
__ अन्धकों की मान्यता।
सातवाँ अध्याय
६२. क्या कुछ वस्तुओं का दूसरी वस्तुओं के साथ वर्गीकरण करना असम्भव
है ? राजगृहिक और सिद्धार्थक भिक्षुओं का ऐसा ही मत था। ६३. क्या ऐसे चेतसिक धर्म नहीं हैं, जो दूसरे चेतसिक धर्मों के साथ संयुक्त हों ?
राजगृहिक और सिद्धार्थक भिक्षु कहते कि नहीं हैं। ६४. क्या 'चेतसिक' नाम की कोई वस्तु-ही नहीं है ? 'नही है' यह भी कहते
थे राजगहिक और मिद्धार्थक भिक्ष ही। ६५. क्या दान देना भी चित्तं की एक अवस्था का ही नाम है ? राजगृहिक और
मिद्धार्थक भिक्षुओं का ऐसा ही विश्वास । ६६. क्या दान-उपभोग के साथ दान का पुण्य भी बढ़ता है ? राजगृहिक,
सिद्धार्थक और सम्मितिय भिक्षुओं का विश्वास । ६७. क्या यहाँ दिया हुआ दान अन्यत्र (पितरों के द्वारा) उपभोग किया जा
मकता है ? यह प्रश्न वड़ा महत्वपूर्ण था जिस पर बौद्धों को भी उस युग में सोचना पड़ा । 'पेतवत्थु' और 'खुद्दक-पाठ' के विवेचनों में हम पहले इसका कुछ निर्देश कर चुके है। राजगृहिक और सिद्धार्थक भिक्षुओं का विश्वास था कि यहाँ दिये हुए भोजन का उपभोग पितर अपने लोक में करते है । स्थविरवादियों के अनुसार भोजन का साक्षात् उपभोग तो उनके लिये सम्भव नहीं है, किन्तु यहाँ दिये हुए दान के कारण प्रेतों के मन पर अच्छा प्रभाव अवश्य पड़ता है और वह उनके कल्याण के लिये होता है।