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( ४३८ ) और विद्या से युक्त कहा जा सकता है ? महासांघिक कहते थे, 'कहा
जा सकता है। १०७. क्या अन्तर्ज्ञान चित्त से अयुक्त भी हो सकता है । पूर्वशैलीय भिक्षु कहते थे
कि हो सकता है। १०८. क्या दुःख आर्य-सत्य का ज्ञान मात्र यह कहने से हो जाता है यह दुःख है' ?
__ अन्धकों का ऐसा ही विश्वास था। १०१. क्या योग की विभूतियों से युक्त मनुष्य कल्प भर तक रह सकता है ?
महासांघिक भिक्षु-कहते थे 'हाँ' । ११०. क्या चित्त-प्रवाह (चित्त-सन्तति) समाधि में भी रहता है ? सर्वास्तिवादी
और उत्तरापथकों का विश्वास । १११. क्या पदार्थों का नियमित स्वरूप स्वयं निष्पन्न (निष्फन्न) है ? अन्धकों
का विश्वास। ११२. क्या अनित्यता स्वयं निष्पन्न है, जैसे अनित्य पदार्थ ? यह मत भी अन्धकों
का था।
बारहवाँ अध्याय ११३. क्या केवल संयम और अ-संयम ही कुशल और अकुशल कर्मों की उत्पत्ति
करने वाले हैं ? महासांघिकों का ऐसा ही विश्वास । ११४. क्या प्रत्येक कर्म का विपाक अवश्य होता है ? महासांघिकों का ऐसा
ही विश्वास था। स्थविरवादियों के मत के अनुसार अव्याकृत कर्म का
विपाक नहीं होता। ११५-११६. क्या वाणी और शरीर की इन्द्रियाँ भी पूर्व-जन्म के कर्म के परि
णाम स्वरूप हैं ? महासांघिकों का ऐमा ही विश्वास था। ११७. क्या वे स्रोत आपन्न व्यक्ति जो अधिक से अधिक सात बार आवागमन में
घमने के बाद निर्वाण प्राप्त करते है (सनक्खत्तु-परम), उस काल के अन्त
होने पर ही निर्वाण प्राप्त करते हैं ? उत्तरापथकों का ऐसा ही मत।। ११८. क्या वे स्रोतापन्न व्यक्ति जो एक कुल से दूसरे कुल में जन्म लेने के बाद
(कोलंकोल) या सिर्फ एक ही बार और जन्म लेने के बाद (एकवीजी)