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का नाम 'वूलवंस' हैं । इस परिवद्धित संस्करण के ३८वें परिच्छेद की उनमठवीं गाथा में यह प्रसिद्ध पाठ आता है 'दत्वा सहस्सं दीपेतुं' दीपवंसं समादिसि' । इसका अर्थ इस प्रकार किया गया है, “उसने सोने की एक महस्र मुद्राएँ देकर 'दीपवंस' पर एक दीपिका लिखवाने की आज्ञा दी ।" जिस राजा के विषय में ऐसा कहा गया है, वह धातुमेन है । इस धातुमेन का काल ईसा की पाँचवीं शताब्दी का अन्तिम या छठी शताब्दी का आदि भाग है । जिस दीपिका की ओर उपर्युक्त पाठ में संकेत किया गया है, उसे यहाँ 'महावंस' ही मान लिया गया है । यह मान्यता पहले फ्लीट नामक विद्वान् ने प्रचारित की । ' गायगर और उनके 'वाद विमलाचरण लाहा महोदय ने भी इसे स्वीकार कर लिया है । वरनिन्ज अवश्य इसे मानने को प्रस्तुत नहीं । यदि वास्तव में 'दीपवंस' पर लिखित उपयुक्त 'दीपिका' से तात्पर्य 'महावंस' से ही हो तो इससे यह प्रमाणित हो जाता है कि 'महावंस' की रचना का काल पाँचवीं शताब्दी का अन्तिम या छठी शताब्दी का प्रारम्भिक भाग ही हैं । विंटरनित्ज़ ने उपर्युक्त 'दीपिका' को 'महावंस' न मान कर भी 'महावंस' का रचना- काल पांचवीं शताब्दी का अन्तिम भाग ही माना है। कुछ भी हो, 'महावंस' का 'दीपवंस' पर आश्रित होना एक निश्चित तथ्य है । अनेक पद्य दोनों में समान है । समान उपादानों का अवलम्बन कर के भी 'महावंस' कार ने अपनी रचना को अपनी उच्चतर भाषा और शैली मे एक विशेष गौरव दे दिया है, इसमें सन्देह नहीं । 'महावंस' के रचयिता का नाम महा
स- टीका के अनुसार महानाम था । स्थविर महानाम दीघसन्द सेनापनि द्वारा निर्मित विहार में रहते थे, " यह भी वहीं कहा गया है। इससे अधिक 'महावंस' के रचयिता और उनके काल के विषय में कुछ ज्ञात नहीं ।
१. जर्नल ऑव रॉयल एशियाटिक सोसायटी १९०९, पृष्ठ ५, पद संकेत १ २. पालि लिटरेचर एंड लेंग्वेज, पृष्ठ ३६
३. हिस्ट्री ऑव पालि लिटरेचर, जिल्द दूसरी, पृष्ठ ५२२ एवं ५३६
४. हिस्ट्री ऑव इंडियन लिटरेचर, जिल्द दूसरी, पृष्ठ २१२, पद संकेत ४
५. उद्धरण के लिए देखिये महावंश, पृष्ठ २ (परिचय) ( भदन्त आनन्द कौसल्या
यन का अनुवाद)