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महामंगल ने केवल अनुश्रुति के आधार पर चौदहवी शताब्दी में इस रचना को ग्रथित किया था, अतः साक्षात् जीवन से प्राप्त मौलिकता या सच्चाई उनकी रचना में नहीं आ सकती थी । 'महावंस' के ३७ वें परिच्छेद के परिवर्द्धित संस्करण में सिंहल - प्रवासी वरमी भिक्षु धम्मकित्ति ( १३ वीं शताब्दी) ने भी यद्यपि बुद्धदोप से शताब्दियों बाद अपने वर्णन को ग्रथित किया था किन्तु उसकी प्रामाणिकता फिर भी 'बुद्धत्रोमुप्पत्ति' से अधिक है । 'महावंस' ( या ठीक कहें तो चूलवंस) के इस प्रकरण की तुलना में बुद्धघोमुप्पत्ति का वर्णन कम ऐतिहासिक मूल्य काही मानना पड़ेगा । 'महावंस' के उपर्युक्त विवरण का साक्ष्य स्वयं बुद्धघोष और वृदन आदि की अट्ठकथाओं के कतिपय वर्णनों से मिल जाता है. जब कि बुद्धघोसुपनि के वर्णनों से उनका कहीं कहीं विरोध भी है, जैसा एक उदाहरण में हम ऊपर देख चुके हैं । अतः ऐतिहासिक रूप से वह उतना विश्वसनीय नहीं माना जा सकता। जो तथ्य उसके प्रामाणिक भी है, वे भी 'महावंस' के वर्णन पर ही आधारित है, यह उनकी शैली से ही स्पष्ट हो जाता है । स्वयं लेखक ने भी स्वीकार किया है कि उसका वर्णन 'पुर्वाचार्यो' ( दुब्वाचरिया) पर आधारित है। उत्तरकालीन ग ग्रन्थों यथा गधवंस, ' मासन वंम तथा सद्धम्मसंग में भी बुद्धघोष की जीवनी के साथ साथ इस ग्रन्थ का भी उल्लेख हुआ है (विशेषतः मामनवंस में ) । ये सभी 'महावंम' के उपर्युक्त परिवर्द्धित अंग पर इतने आधारित है कि इनमें कोई नई बात ही ढूंढना व्यर्थ है । 'बुद्धघोगुप्पनि' का दूसरा नाम 'महाबुद्धघोमम्म निदानवत्थु ' ( महाबुद्धघोषस्य निदानवस्तु) भी है ।
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सद्धम्मसंगह
'मद्धम्मसंगह' एक गद्य-पद्य मिश्रित रचना है, जिसमें बुद्ध-शासन के मंत्रह के साथ साथ प्रारम्भिक काल से लेकर १३ वी शताब्दी तक के भिक्षु संघ के इतिहास का वर्णन है। दीघ, मज्भिम, संयुक्त, अंगुत्तर और खुदक निकायों का निर्देश इस
१. जर्नल ऑव पालि टैक्स्ट सोसायटी १८८६ में प्रकाशित संस्करण, पृष्ठ ६६ २. पृष्ठ ३० (मेबिल बोड द्वारा सम्पादित, पालि टैक्स्ट सोसायटी, १८९७ ) ३. जर्नल ऑफ पालि टैक्स्ट सोसायटी, १८९० में प्रकाशित संस्करण, पृष्ठ ५५ ४. सद्धानन्द द्वारा जर्नल ऑव पालि टॅक्स्ट सोसायटी, १८९० में सम्पादित ।