________________
( ५६५ )
निश्चिततम इतिहास ही है । अकेले पराक्रमबाहु प्रथम का ही वर्णन इस भाग में १८ अध्यायों में किया गया है। पराक्रम - बाहु ने द्रविड़ों को हराया था और बौद्ध धर्म के स्तूपों, विहारों आदि के निर्माण के द्वारा बड़ी सेवा की थी । महानाम ने जिस प्रकार दुट्ठगामणि के वर्णन से एक ऐतिहासिक महाकाव्य की रचना कर डाली है, उसी प्रकार यहाँ पराक्रमबाहु को एक महाकाव्योचित प्रभावशील वर्णन का विषय बनाया गया है । (२) 'चूलवंस' का द्वितीय परिवर्द्धन बुद्धरक्षित नामक भिक्षु ने किया । इन्होंने ८० वें परिच्छेद से लेकर ९० वें परिच्छेद तक रचना की । पराक्रमबाहु द्वितीय से आरम्भ कर इन्होंने अपना विषय पराक्रमबाहु चतुर्थ पर छोड़ा | इस भाग में इन्होंने २३ राजाओं का वर्णन किया ।
(३) 'चूलवंस' का तृतीय परिवर्द्धन सुमंगल स्थविर ने किया । इन्होंने ९१ वें परिच्छेद से १०० परिच्छेद तक रचना की। भुवनेकबाहु तृतीय के काल से ले कर इन्होंने अपने विषय को कीर्ति श्री राजसिंह ( कित्ति सिरिराजसीह ) की मृत्यु ( १७८५ ई० ) तक छोड़ा। इस बीच में उन्होंने २४ राजाओं का वर्णन किया। इसी अंश में हमें ईसाई धर्म प्रचारकों के लंका में आने की सूचना भी मिलती है ।
(४) 'चूलवंस' का चौथा परिवर्द्धन सुमंगलाचार्य तथा देवरक्षित ने किया । यह परिवर्द्धन केवल १०१ वें परिच्छेद के रूप में लिखा गया । इसमें लंका के दो अन्तिम राजा सिरि राजाधिराज सीह ( श्री राजाधिराज सिंह) और सिरि विक्कम राज सीह (श्री विक्रमराज सिंह) का वर्णन है, और लंका के अंग्रेजों के हाथ में चले जाने की भी सूचना है । यह अंग १७८५ और १८१५ ई० के बीच के लंका के इतिहास का वर्णन करता है ।
(५) सन् १८१५ से १९३५ ई० तक का लंका का इतिहास सिंहली भिक्षु स्थविर युगिरल पञ्ञानन्द नायक पाद- द्वारा लिखा गया है । यदि चाहें तो इसे भी 'चूलवंस' का ही परिवर्द्धित स्वरूप कह सकते हैं, और चाहें तो अलग स्वतंत्र ग्रन्थ भी मान सकते हैं । प्रकाशित (१९३६) तो यह स्वतंत्र ग्रन्थ के रूप में ही हुआ है । सिंहल की आधुनिक पालि-रचना की प्रगति पर इस ग्रन्थ से पर्याप्त प्रकाश पड़ता है ।