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एक दूसरी परम्परा है, जो उनके सम्प्रदाय के अनुसार प्रामाणिक मानी जाती है। चुंकि भिन्न भिन्न सम्प्रदायों ने अपने अपने सम्प्रदायों के अनुसार इन परम्पराओं का उल्लेख किया है, अतः उनमें कम या अधिक प्रामाणिक होने का सवाल ही नहीं उठता। वे मव अपनी अपनी दृष्टि से प्रामाणिक है और आदिम स्रोत तो हर हालत में बुद्ध और उनके प्राथमिक शिष्य है ही। सिंहल के स्तुप, विहार और चैत्यों के तो बड़े ही विस्तृत विवरण ‘महावंस' में उपलब्ध हैं। महाविहार, अभयगिरि विहार, थूपाराम, महामेघवण्णाराम, लोहपामाद आदि विहारों के वर्णन लंका में बौद्ध धर्म के विकास पर बड़ा अच्छा प्रकाश डालते हैं और पुरातत्त्व के विद्यार्थी के लिए अध्ययन के अच्छे विषय है। इसी प्रकार धार्मिक उत्सवों के भी करे चित्रमय वर्णन उपलब्ध है। सब से बड़ी बात तो भारत और सिहल के शताब्दियों तक के पारस्परिक आदान-प्रदान का इन ग्रन्थों में बड़ा सुन्दर चित्रण है। तत्कालीन भारतीय इतिहास और भूगोल मानो इन ग्रन्थों में पुनरुज्जीवित हो उठता है। राजगृह, कौशाम्बी, वैशाली, उज्जयिनी, पुष्पपूर, नालन्दा आदि भारतीय सांस्कृतिक केन्द्रों की स्मृति 'दीपवंस' और 'महावंस' में कितनी हरी-भरी है, यह उन्हें पढ़ते ही देख बनता है। कपिलवस्तु, कुशावती, कुशीनारा, गिरिद्रज, जेतवन, मधुरा (मथुरा), उरुवेला, काशी, ऋषिपतन (इतिपतन), पाटलिपुत्र, वाराणसी आदि बुद्ध-स्मृति से अंकित भारतीय नगरों, तथा इसी प्रकार अंग, मगध, चम्पा, मल्ल, वेळवन, इन्द्रप्रस्थ, भरुकच्छ, सुप्पारक, तक्षशिला, सागल (स्यालकोट), अवन्ती, मद्र, प्रयाग (पयाग) आदि स्थानों तथा उतने ही अधिक लंका-द्वीप के सांस्कृतिक केन्द्रों और स्थानों से, जो इन ग्रन्थों में वर्णित है, तत्कालीन भुगोल का ही निर्माण किया जा सकता है। पालि साहित्य के इतिहास में भी इन ग्रन्थों का साक्ष्य त्रिपिटक की प्राचीनता सम्बन्धी उस परम्परा का समर्थन करता है जिसके दर्शन हम पहले अशोक के अभिलेखों और 'मिलिन्द पह' में करते हैं। इन दोनों ग्रन्थों में ही तीनों पिटकों, पाँचों निकाओं और उनके विभिन्न ग्रन्थों के नाम ले लेकर, उनके वर्गों, पज्ञासकों, संयुत्तों और वर्गों के पूरे ब्यौरे दे देकर
१. जिसके उद्धरण के लिए देखिये राहुल सांकृत्यायन : अभिधर्मकोश पृष्ठ ८
(भूमिका)