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( ५६१ ) ऐतिहासिक शैली को व्यक्त नहीं करतीं। यदि इन सब बातों को उचित अवकाश देकर 'दीपवंस' और 'महावंस' की मूल विषय-वस्तु का परीक्षण किया जाय तो वहाँ से हम निश्चय ही बहुत कुछ निश्चित इतिहास का निर्माण कर सकते हैं। न केवल लंका के धार्मिक और राजनैतिक इतिहास में ही बल्कि भारतीय इतिहास की अनेक समस्याओं के सुलझाने में भी, विशेषतः उसके काल-क्रम की समस्या के सुलझाने में, इस प्रकार के अध्ययन से काफी सहायता मिल सकती है। चाहे 'दीपवंस' और 'महावंस' के अन्य विवरण कितने ही अधिक अतिरंजनामय हों, कालानुक्रम के सम्बन्ध में उनका प्रामाण्य और महत्त्व निर्विवाद है। उनकी इमी विशेषता की ओर लक्ष्य करते हुए प्रो० रायस डेविड्स ने कहा है कि सिहल के इतिहास-ग्रन्थों की कालानुक्रमणिका इंगलैण्ड और फ्रांस के उन सर्वोत्तम ग्रन्थों की कालानुक्रमणिकाओं से भी, जो उन देशों में बहुत शताब्दियों बाद तक लिखे गये, किसी भी प्रकार कम महत्त्व वाली नहींहैं।' यधपि विजय से लेकर देवानंपिय तिस्स तक की कालानुक्रमणिका के विषय में तो उतना निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता, किन्तु देवानंपिय तिस्स और हर हालत में दुगामणि से लेकर महासेन तक की कालानुक्रमणिका तो प्रामाणिक ही मानी जा सकती है। ‘महावंस' में दी हुई इस पूरी कालानुक्रमणिका को हम यहाँ विस्तार-भय से उद्धृत नहीं कर सकते। यहाँ केवल इतना ही कहना अपेक्षित है कि चूंकि बुद्ध-परिनिर्वाण से काल-गणना कर यहाँ विभिन्न राजाओं के शासन-काल की गणना की गई है, अतः उससे न केवल बुद्ध के परिनिर्वाण अपितु अन्य अनेक भारतीय ऐतिहासिक घटनाओं के तिथि-विनिश्चय में भी पर्याप्त सहायता मिली है। इस विषय का अधिक विवेचन करना तो यहाँ पुरे प्राचीन भारतीय इतिहास की एक अत्यन्त विवाद-ग्रस्त समस्या में ही प्रवेश करना होगा, जो हमारे प्रस्तुत प्रयोजन को देखते हुए अप्रासंगिक
१. बुद्धिस्ट इंडिया, पृष्ठ २७४ २. 'महावंस' के आधार पर विजय से लेकर महासेन तक के लंका के ६१ राजाओं
को तथा बिम्बिसार से लेकर अशोक तक के १३ भारतीय राजाओं की कालानुक्रमणिकाओं के उद्धरण के लिए देखिये महावंश (भदन्त आनन्द कौसल्यायन का हिन्दी अनुवाद), पृष्ठ ७-९ (भूमिका)