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उद्धृत किया गया है। इससे यह स्पष्ट रूप से प्रमाणित होता है कि पालि त्रिपिटक : इनके प्रणयन-काल में उसी नाम और वर्गीकरण में विद्यमान था, जिसमें वह आज है।
चूलवंस'
जैसा पहले कही जा चुका है, 'महावंस' ३७वें परिच्छेद की ५० वीं गाथा पर समाप्त हो जाता है और वह लंका के इतिहास का महासेन के शासन-काल (३२५-३५२ ई०) तक वर्णन करता है। उसके बाद का लंका का क्रमबद्ध इतिहास भी इसी ग्रन्थ के परिवद्धित अंश के रूप में बाद में उसके साथ ही जोड़ दिया गया। यह जुड़ा हुआ अंश अठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध तक अथवा यदि उसके आधुनिकतम रूप को भी उसी के साथ संयुक्त मानें तो ठीक १९३५ ई० तक लंका के इतिहास का क्रम-बद्ध निरूपण करता है। 'महावंस' के ३७ वें परिच्छेद की ५० वीं गाथा के बाद का यह परिवद्धित अंश 'चूलवंस' के नाम से प्रसिद्ध है। 'चूलवंस' सन् ३५२ ई० (महासेन के शासन-काल की अन्तिम साल) से लेकर ठीक आधुनिक काल तक (उसके आधुनिकतम विकसित रूप को सम्मिलित कर) लंका के इतिहास का वर्णन करता है। यह रचना पाँच भिन्न भिन्न व्यक्तियों द्वारा भिन्न भिन्न कालों में हुई है, जिसका क्रमानुसार विवरण इस प्रकार है-- (१) सिंहल प्रवासी स्थविर धम्मकित्ति (धर्मकीति) नामक बरमी भिक्षु ने, जो
प्रसिद्ध सिंहली राजा पराक्रमबाहु द्वितीय के समकालिक थे, तेरहवीं शताब्दी के मध्य भाग में सर्वप्रथम महानाम द्वारा ३७ वें परिच्छेद की ५० वीं गाथा पर छोड़े हुए ‘महावंस' का परिवर्द्धन किया। सैतीसवें अध्याय में १९८ गाथाएँ जोड़ कर उसे 'सात राजा' शीर्षक दिया और फिर ७९ परिच्छेद तक ग्रन्थ-रचना की। राजा महासेन के पुत्र सिरिमेघवण्ण (श्री मेघवर्ण) से इन्होंने अपने विषय का प्रारम्भ किया और उसे पराक्रमबाहु प्रथम (१२४०-१२७५) के शासन-काल तक छोड़ा। इस बीच में उन्होंने ७८ राजाओं का कालानुक्रम-पूर्वक वर्णन किया, जो
१. रोमन लिपि में डा० गायगर द्वारा सम्पादित, पालि टेक्स्ट सोसायटी द्वारा प्रकाशित, १९३५; इस ग्रन्थ के सिंहली और बरमी संस्करण भी उपलब्ध हैं।