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( ५५५ ) दीपवंस और महावंस की तुलना
_ 'दीपवंस' और 'महावंस' का विषय एक समान है, यह पहले दिखाया जा चुका है । पाँचवीं शताब्दी ईसवी पूर्व से लेकर चौथी शताब्दी ईसवी तक के लङ्का के इतिहास का वर्णन दोनों का विषय है । किन्तु 'दीपवंस' की अपेक्षा 'महावंस' की विषय-वस्तु अधिक विस्तृत, अधिक व्यवस्थित और अधिक काव्यमय है । ‘महावंस' के आदि में ही इस कवि-इतिहासलेखक ने कहा है “पुराने लोगों ने भी इस (महावंश') का वर्णन किया है। उसमें कहीं अति विस्तार, कहीं अति संक्षेप और पुनरुक्ति की अधिकता है। उन सम्पूर्ण दोषों से मुक्त, समझने और ‘म्मरण रखने में सरल, सुनने पर प्रसन्नता और वैराग्य को देने वाले , परम्परागत, प्रसाद-जनक स्थलों पर प्रसाद और वैराग्य-जनक स्थलों पर वैराग्य उत्पन्न करने वाले, इस महावंश को सुनो।"१ महावंस-टीका ने भी इसी का अनुमोदन करते हुए स्वीकार किया है “आचार्य (महानाम) ने पुरानी सिहल अट्ठकथा में से अति विस्तार तथा पुनरुक्ति दोषों को छोड़ सरलता से समझ में आने योग्य “महावंस' को लिखा।"२ महावंस का लेखक निश्चय ही एक कवि-हृदय का व्यक्ति था। उसने जिस स्थल को स्पर्श किया है, प्रत्येक को रसात्मकता प्रदान की है। इस 'महावंस' या महान् पुरुषों (राजाओं, आचार्यो) के वंश-इतिहास लिखने में उसका मन्तव्य उनके उदय-व्यय को दिखाकर पाठकों के हृदय में निर्वेद प्राप्त कराना भी था, यह उसने प्रत्येक परिच्छेद के अन्त में स्पष्ट कर दिया है । 'महावंस' का प्रत्येक परिच्छेद इन शब्दों के साथ समाप्त होता है "सुजनों के प्रसाद
और वैराग्य के लिये रचित 'महावंस' का ... परिच्छेद समाप्त ।” 'दीपवंस' के साथ ‘महावंस' के वणित विषयों की तुलना करना के लिये यहाँ 'महावंस' की विषय-सूची का दिग्दर्शन मात्र करा देना आवश्यक होगा। ऊपर दीपवंस के
१. महावंस १-२-४ (भदन्त आनन्द कौसल्यायन का अनुवाद) २. "अयं हि आचरियो एत्थ पोराणकम्हि सीहलट्ठकथा महावंसे अतिवित्थार
पुनरुत्तदोसभावं पहायतं सुखग्गहणादिपयोजन सहितं कत्वा कथेसि । महावंस,
पृष्ठ १ (परिचय) में उद्धृत। ३. “महन्तातं वंसो तन्ति पर्वणि महावंसो", महावंस-टीका।