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( ५१५ ) फिर निकायों की अट्ठकथाओं में नहीं दुहराया है। इसके विषय में भी उन्होंने प्रत्येक निकाय की अट्ठकथा के आरंभ में कहा है “चूंकि मैंने इस सबका शुद्ध निरूपण 'विसुद्धि-मग्ग' में किया है, इसलिए उसके संबंध में फिर यहाँ दुबारा विचार नहीं करूँगा।"१ निश्चय ही आचार्य बुद्धघोष ? 'विसुद्धि मग्ग' को अपनी संपूर्ण रचनाओंका मध्यस्थ बिन्दु मानते थे और अपनी अट्ठकथाओं के अध्ययन से पहले पाठक से वे उसके अध्ययन की अपेक्षा रखते थे । ___ यद्यपि विसुद्धि-मग्ग' (विशुद्धि मार्ग) पूरे अर्थों में एक मौलिक रचना है, किन्तु वह दो गाथाओं की व्याख्या के रूप में ही लिखी गई है। वे दो गाथाएं हैं---
"अन्तो जटा बहि जटा जटाय जटिता पजा। तं तं गोतम पुच्छामि को इमं विजटये जटं ति।"
दूसरी गाथा है-- "सोले पतिट्ठाय नरो समचो चित्तं पाञ्च भावये। आतापी निपको भिक्खु सो इमं विजटये जटं ति।"
पहली गाथा प्रश्न के रूप में है और दूसरी गाथा उसका उत्तर है। विसुद्धिमग्ग के प्रारंभ में ही कहा गया है कि एक बार जब भगवान् श्रावस्ती में विचरते थे तो किसी देवपुत्र ने उनके पास आकर उनसे प्रथम गाथा के रूप में प्रश्न पूछा जिसका अर्थ है “अन्दर भी उलझन है, बाहर भी उलझन है। यह जनता उलझन में जकड़ी हुई। अतः हे गोतम ! मैं तुमसे पूछता हूँ--कौन इस उलझन को सुलझा सकता है ?" भगवान् ने दूसरी गाथा के द्वारा इसका उत्तर दिया, जिसका अर्थ यह है “शील में प्रतिष्ठित होकर प्रज्ञावान् मनुष्य जब समाधि और प्रज्ञा की भावना करता है, तो इस प्रकार उद्योगी और ज्ञानवान् भिक्षु होकर वह उस उलझन को सुलझा देता है।" बस इस भगवान् के उत्तर को लेकर ही आचार्य बुद्धघोष ने संपूर्ण बौद्ध ज्ञान और दर्शन को एक एक निश्चित उद्देश्य के सूत्र में पिरो दिया है । वह उद्देश्य क्या है ? साधना के मार्ग के उत्तरोत्तर विकास का स्पष्ट
१. इति पन सब्बं यस्मा विसुद्धिमग्गो मया सुपरिसुद्धं ।
वृत्तं तस्मा भिथ्यो न तं इध विचारयिस्सामि॥