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भिक्षुओं का अलग होकर ‘महासंघिकों' के रूप में विकसित हो जाना आदि वर्णित है। अशोक के काल तक, स्थविरवाद सम्प्रदाय को सम्मिलित कर, बुद्धधर्म १८ सम्प्रदायों में विभक्त हो गया था, यह भी 'दीपवंस' का वर्णन अन्य इस सम्बन्धी स्रोतों के साक्ष्य से अनुमत है, यह सब हम द्वितीय अध्याय में बौद्ध संगीतियों के विवरण में देख चुके हैं । प्रथम दो संगीतियों का वर्णन करने के बाद दीपवंस' तीसरी संगीति के वर्णन पर आता है। किन्तु यहाँ सम्बन्ध मिलाने के लिये वह पहले लङ्का-द्वीप के उस समय तक के इतिहास को अङ्कित करता है । लङ्काद्वीप की स्थापना एक भारतीय उपनिवेशके रूप में लाळ-नरेश सिंहबाहु के विद्रोही पुत्र विजय ने की। वह अपने पिता के द्वारा अपने उच्छृखल व्यवहार के कारण देश मे बाहर निकाल दिया गया था। अपने कुछ साथियों को लेकर विजय लङ्का द्वीप आया। यात्रा के प्रसंग में सुप्पारक , भम्कच्छ आदि वन्दरगाहों का भी वर्णन कर दिया गया है, जो ग्रन्थकार की ऐतिहासिक बुद्धि का पर्याप्त साथ्य देता है। किन्तु साथ ही यह भी दिखाया गया है कि लङ्का में उस समय यक्ष, दानव और राक्षम रहते थे, जो 'पुराण-इतिहास' शैली का एक अच्छा नमूना कहा जा सकता है। विजय सिंहल का प्रथम अभिषिक्त राजा हुआ। उसके बाद अनेक राजा हुए। जिम समय भारत में अशोक राजा राज्य करता था, मिहल में विजय का वंशधर देवानंपिय तिस्स नामक राजा था । अशोक ने तृतीय संगीति के बाद अपने पुत्र और पुत्री महेन्द्र और संघमित्रा को बुद्ध-धर्म का सन्देश लेकर लङ्का में भेजा। वे अपने साथ बोधि-वृक्ष की शाखा भी ले गये । देवानंपिय तिस्म ने उनका स्वागत किया और बुद्ध-धर्म को स्वीकार किया। इस प्रकार देवानंपियतिस्स के शासन काल में बौद्ध धर्म सर्व प्रथम लङ्का में प्रविष्ट हुआ। बोधिवृक्ष की शाखा, जिसे महेन्द्र और संघमित्रा अपने साथ ले गये थे, बड़े सम्मान के साथ अन राधपुर में लगाई गई और वही 'महाविहार' नामक विहार की स्थापना की गई । देवानंपिय तिस्स के बाद लङ्का के ऊपर एक बड़ी विपत्ति आई । दक्षिण
१. प्राचीन लाट अर्थात् गुजरात-प्रदेश। गायगर ने इसे बंग-प्रदेश माना है, जो निश्चय ही गलत है। देखिये महावंश, पृष्ठ ६ (परिचय) (भदन्त आनन्द कौसल्यायन का अनुवाद)