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में ही नहीं सम्पूर्ण भारतीय दार्शनिक इतिहास में अपना एक विशेष स्थान रखती हैं । इसी प्रकार उनकी अट्ठकथाओं का अर्थ सम्बन्धी महत्त्व तो है ही, उनमें जो महान् ऐतिहासिक और भौगोलिक सामग्री भरी पड़ी है, जिससे सम्पूर्ण प्राचीन भारतीय सामाजिक और राजनैतिक जीवन पुनरुज्जीवित हो उठता है, वह तो भारतीय इतिहास के विद्यार्थी के लिये निरन्तर उपयोग की वस्तु ही है । आचार्य बुद्धघोष उन प्राचीन भारतीय आचार्यो की परम्परा में से थे जो ज्ञान के क्षेत्र को मौलिक दान देते हुए भी भाष्यकार के विनीत रूप में रहना ही पसन्द करते आचार्य बुद्धघोष ने हमें बहुत कुछ नया आलोक दिया है, ज्ञान के क्षेत्र को अपने ढंग से काफी विस्तृत किया है, फिर भी सदा अपने को महाविहारवासी भिक्षुओं की आदेशना - विधि का अनुगामी ही बताया है । यह उनकी विनम्रता का सूचक है । बुद्धघोष महास्थविर ने सद्धम्म की चिरस्थिति के लिये जो काम किया है, उसी के कारण हम आज बुद्ध और उनके युग को इतनी सजीवता के साथ समझ सके हैं । बुद्धघोष की अट्ठकथाओं से लुम्बिनी, कौशाम्बी, राजगृह, उरुवेला और कपिलवस्तु की स्मृतियों को आज भी नया बनाया जा सकता है और चित्त को राग, द्वेष और मोह 'मुक्त किया जा सकता है। जब तक 'विसुद्धिमग्ग' और 'अट्ठसालिनी' जैसे गम्भीर दार्शनिक ग्रन्थ और 'सुमंगल विलासिनी' और 'समन्त - पासादिका' जैसी ऐतिहासिक सामग्री - परिपूर्ण अट्ठकथाएँ पालि में विद्यमान है, तत्र तक ज्ञान और इतिहास के गवेषक सदा उसके दरवाजे पर आते रहेंगे और प्रसंगवश उस विनीत, साक्षात् मैत्रेय, महास्थविर की अनुस्मृति करते भी रहेंगे, जो ज्ञान-पिपासावश भारत से लंका दौड़ा गया था और जिसने वहाँ महापधान-भवन में बैठकर दिन-रात बुद्ध-शासन का चिन्तन किया था और उसके मर्म को भी पाया था । हम आचार्य बुद्धघोष की इसी अनुस्मृति के साथ इस प्रकरण को समाप्त करते हैं ।
धम्मपाल और उनकी अट्ठकथाएँ
आचार्य बुद्धघोष के समकालिक बुद्धदत्त ( जिनका विवरण पहले दिया जा चुका है ) के अलावा एक अन्य प्रसिद्ध अट्ठकथाकार धम्मपाल है । वास्तव में बुद्धदत्त और धम्मपाल दोनों ने बुद्धघोष के काम को ही पूरा किया है। धम्मपाल