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( ५४४ ) व्याख्या (३) राजाधिराज-बिलासिनी-काव्य-ग्रन्थ । इन्हीं ज्ञानाभिवंग संघराज ने 'चतुसामणेरवत्थु' और राजवादवत्थु' नामक भाव-मयी रचनाएँ भी लिखी हैं । अठारहवीं शताब्दी में ही 'मालालंकारवत्थु' नामकी बुद्ध-जीवनो भी लिखी गई, किन्तु उसके लेखक के नाम के विषय में हमारी कोई जानकारी नहीं है। उन्नीसवीं शताब्दी का पालि-साहित्य
नलाटधातुवंस, छकेसधातुवंस, सन्देसकथा और सीमा-विवाद-विनिच्छय उन्नीसवीं शताब्दी की रचनाएँ हैं, जिनके लेखकों के विषय में हमें कुछ ज्ञात नहीं है। इस शताब्दी की दो बड़ी महत्त्वपूर्ण रचनाएँ 'गन्धवंस' और 'मासनवंस' हैं। चंकि ये दोनों वंश-ग्रन्थ हैं, इनका विस्तृत विवरण हम नवें अध्याय में इस सम्बन्धी साहित्य का विवेचन करते समय करेंगे । उन्नीसवीं शताब्दी में लंका
और वरमा में पालि-सात्यि सम्बन्धी अन्य अनेक ग्रन्थ भी लिखे गये, जिनके नामपरिगणन मात्र से कोई विशेष उद्देश्य सिद्ध नहीं हो सकता। हाँ, प्रसिद्ध बग्मी 'भिक्षु लेदि सदाव की 'परमत्थदीपनी' नामक अभिधम्मत्थ संगह की टीका
और उनका यमक-सम्बन्धी पालि निबन्ध जो उन्होंने श्रीमती रायस डेविड्स की कुछ शंकाओं के निवारणार्थ लिखा था, अवश्य महत्वपूर्ण रचनाएँ हैं और उन्नीसवीं शताब्दी के पालि-साहित्य के इतिहास में अपना एक विशेष स्थान रखती हैं। इसी प्रकार लंका में समरसेकर श्री धम्मरतन, विक्रम सिंह, स्थविर नारद, और युगिरल पज्ञानन्द महाथेर आदिने जो महत्त्वपूर्ण कार्य आज तक किया है, वह भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है। बीसवीं शताब्दी की कुछ महत्त्वपूर्ण टीकाएँ
बीसवीं शताब्दी में भी पालि-भाषा में टीकाओं का लिखा जाना कुछ आश्चर्यमय अवश्य लगता है, किन्तु वह एक तथ्य है । वह एक ऐसी परम्परा का सूचक है जो अभी विच्छिन्न नहीं हुई है । भारत में पालि-अध्ययन की जो दुरववस्था है,
१. देखिये दसवें अध्याय में पालि-काव्यग्रन्थों का विवेचन। २. देखिये पीछे पांचवें अध्याय में 'यमक' का विवरण।