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( ५४८ ) कहे गये हैं, सर्ग (सृष्टि-कम-वर्णन) प्रतिसर्ग (प्रलय के बाद पुनः सृष्टि-क्रम का वर्णन), वंश , मन्वन्तर और वंशानुचरित । इनमें वंश और वंशानुचरित हमारे प्रस्तुत विषय की दृष्टि से बड़े महत्त्व के हैं । राजाओं की विस्तृत वंशावलियाँ विष्णु, वायु, मत्स्य, भागवत आदि पुराणों में दी हुई हैं । पालि का वंग-साहित्य भी प्रधानतः राजाओं की वंशावलियों का ही वर्णन करता है, यद्यपि महाभारत और पुराणों की तरह उसमें भी इनके अलावा बहुत कुछ है । धर्म-वृत्त और कथाएँ दोनों के ही महत्त्वपूर्ण अंग हैं । इतने सामान्य कथन के बाद अब हम पालि के वंशसाहित्य की विशेषताओं में प्रवेश कर सकते हैं। पालि 'वंश'-ग्रन्थ
पालि में 'वंश'-साहित्य की परम्परा बुद्धघोष-युग के पहले से ही चली आती है और उसका अविच्छिन्न प्रवर्तन तो ठीक उन्नीसवीं या बीसवीं शताब्दी तक मिलता है । पालि के मुख्य वंश-ग्रन्थ ये हैं, (१) दीपवंस (२) महावंस (३) चूलवंस (४) बुद्धघोसुप्पत्ति (५) सद्धम्मसंगह (६) महाबोधिवंस (७) थूपवंस (८) अत्तनगलुविहारवंस (९) दाठावंस (१०) छकेसधातुवंस (११) गन्धवंस और (१२) सासनवंस । इनका अलग अलग संक्षिप्त परिचयात्मक विवेचन आवश्यक होगा। दीपवंस'
'दीपवंस' पालि वंश-साहित्य की सर्व-प्रथम रचना है। यह लंका-द्वीप का इतिहास है। लंका-द्वीप की ऐतिहासिक परम्परा का आधार एवं आदि स्रोत यही ग्रन्थ है । 'दीपवंस' प्राग्बुद्धघोषकालीन रचना है । इसके लेखक का नाम अभी अज्ञात ही है । आरम्भिक काल से लेकर राजा महासेन के शासन-काल (३२५-३५२ ई०) तक का लंका का इतिहास इस ग्रन्थ में वर्णित है । बुद्धघोष ने इस ग्रन्थ को अपनी अट्ठकथाओं में कई जगह (विशेषतः कथावत्थुपकरण की
१. रोमन लिपि में ओल्डनबर्ग द्वारा सम्पादित, पालि टैक्स्ट सोसायटी द्वारा
प्रकाशित, लन्दन १८७९ । हिन्दी में अभी तक इस ग्रन्थ का कोई मूल संस्करण या अनुवाद नहीं निकला। इस ग्रन्थ के बरमी और सिंहलो संस्करण उपलब्ध हैं।