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( ५४३ ) जो निदान-कथा की सुमेध-कथा का काव्यमय रूपान्तर है । रट्ठसार ने कुछ जातकों के काव्यमय रूपान्तर किये हैं। पन्द्रहवीं शताब्दी की ही एक रचना 'काव्यविरतिगाथा' है, किन्तु उसके लेखक के नाम आदि का अभी पता नहीं चला है । सोलहवीं शताब्दी का पालि-साहित्य
सोलहवीं शताब्दी के पालि-साहित्य के इतिहास में सद्धम्मालंकार और महानाम, इन दो भिक्षुओं के नाम अधिक प्रसिद्ध है । सद्धम्मालंकार की रचना 'पट्ठान-दीपनी' है, जो पट्ठानप्पकरण की टीका है । महानाम ने 'मधुसारत्थदीपनी' लिखी, जो बुद्धघोष के समकालिक भिक्षु आनन्द द्वारा लिखित 'अभिधम्ममूलटीका' या संक्षेपतः ‘मूल-टीका' की अनुटीका है ।' सत्रहवीं शताब्दी का पालि-साहित्य
तिपिटकालंकार, तिलोकगुरु, सारदस्सी और महाकस्सप, ये चार भिक्षु सत्रहवीं शताब्दी के पालि-साहित्य के इतिहास के प्रकाश-स्तम्भ हैं । तिपिटकालंकार (त्रिपिटकालंकार) की ये तीन रचनाएँ हैं (१) वीसतिवण्णनाअसालिनी के आरंभ की २० गाथाओं की टीका (२) यसवड ढनवत्थु (३) विनयालंकार--सारिपुत्त-क्रत 'विनय-संगह' की टीका । तिलोकगुरु की चार रचनाएँ प्रसिद्ध हैं, जिनमें दोनों धातु-कथा की ही टीका और अनुटीका स्वरूप है, यथा (१) धातुकथाटीका-वण्णना (२) धातुकथा-अनुटीका--वण्णना । शेष दो रचनाएँ हैं (१) यमकवण्णना (२) पट्ठान-वण्णना । सारदस्सी की रचना 'धातुकथा-योजना' है जो धातु कथा की टीका है। महाकस्सप की प्रसिद्ध रचना 'अभिधम्मत्थ गण्ठिपद' है जो अभिधम्म के कठिन शब्दों की व्याख्या है । अठारहवीं शताब्दी का पालि-साहित्य
इस शताब्दी के एकमात्र प्रसिद्ध लेखक ज्ञाणाभिवंस (ज्ञानाभिवंश)) हैं जो बरमा के संघराज थे। इनकी तीन रचनाएँ अधिक प्रसिद्ध हैं (१) पेटकालंकार--नेत्तिपकरण की टीका (२) साधुविलासिनी-दीघ-निकाय की आंशिक