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( ५४२ ) हैं। यहाँ लेखक ने बुद्ध-काल से लेकर तेरहवीं शताब्दी तक भिक्षु-संघ के इतिहास का वर्णन किया है। कोई नवीन सूचना न देने पर भी लेखक ने जितने विस्तृत साहित्य का उपयोग किया है, वह उस समय तक के पालि-साहित्य की प्रगति की दृष्टि मे उसके इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है, इसमें सन्देह नहीं । चौदहवीं शताब्दी का पालि-साहित्य
इम शताब्दी की पाँच रचनाएँ हैं. जिसमें चार काव्य ग्रंथ हैं ,और एक वंशग्रन्थ । इनका विशेष विवरणतो हम क्रमशः दसवें और नवें अध्यायों में करेंगे, किन्तु यहाँ नामोल्लेख करना आवश्यक है। चार काव्य-ग्रन्थ हैं (१) मिहल-प्रवासी वर्मी भिक्षु मेधकर-कृन लोकप्पदीपसार या लोकदीपसार (२) पंचगतिदीपन, जिमके लेखक का पता नहीं (३) सद्धम्मोपायन, जिसके भी लेखक का ठीक पता नहीं, और (४) तेलकटाहगाथा, जिसके भी लेखक का नाम अनात है । वंश-ग्रन्थ, भिक्षु महामंगल-कृत 'बुद्धघोसुप्पति' है, जिसमें बुद्धघोष की जीवनी का वर्णन किया गया है । वरमी पालि-साहित्य-पन्द्रहवीं शताब्दी का पालि-साहित्य ___ जैमा पहले दिखाया जा चुका है, पन्द्रहवीं शताब्दी से बरमा पालि-साहित्य के अध्ययन और ग्रन्थ-रचना का प्रधान केन्द्र हो गया। जिस विषय की ओर बरमी बौद्ध भिक्षुओं की विशेष दृष्टि गई वह था अभिधम्म । वास्तव में यह उनके अध्ययन और ग्रन्थ-रचना का एक मात्र मुख्य विषय ही बन गया। फलत: एक लंबी परम्परा हम इस साहित्य संबंधी रचना की वहाँ देखते है । पन्द्रहवीं शताब्दी के बरमी पालि-साहित्य के इतिहास के प्रसिद्ध नाम है अरियवंम, सद्धम्मसिरि (सद्धर्म श्री) सीलवंस और रट्ठसार । अरियवंस की रचनाएँ ये है (१) मणिसारमशंसा---सुमंगल-कृत अभिधम्मत्थविभावनी की टीका (२) मणिदीप--बुद्धघोषकृत असालिनी की टीका (३) जातकविसोधन--जातक-संबंधी रचना । सद्धम्मसिरि अरियवंस के ही समकालिक थे । इनकी एकमात्र प्रसिद्ध रचना 'नेत्तिभावनी' है जो नेत्तिपकरण की टोका है । सीलवंस का काल अरियवंस और सद्धमसिरि से कुछ बाद का का है किन्तु है पन्द्रहवीं शताब्दी ही । इनकी प्रसिद्ध रचना 'बुद्धालंकार' है