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( ५२८ ) की पृष्ठभूमि में बहुत कुछ अन्तर पाया जाता है, अतः उत्तरकालीन क्षेपकों और परिवर्द्धनों की भी इस ग्रन्थ में आशंका की गई है । भारतीय कथानक-साहित्य के प्राचीन रूप को जानने के लिये जातक के समान उसकी इस अट्ठकथा को भी पढ़ना अत्यन्त आवश्यक है, इसमें सन्देह नहीं । अभिधम्म-पिटक सम्बन्धी अट्ठकथाएँ ___ आचार्य बुद्धघोप की अभिधम्म-पिटक सम्बन्धी अट्ठकथाएँ भी बड़ी महत्त्वपूर्ण हैं । इनमें सव से पहला स्थान 'अट्ठसालिनी' का है,जो 'धम्मसंगणि'की अट्ठकथा है । वास्तव में इसके समान गम्भीर और दुरुह दूसरी रचना अनुपिटक माहित्य में नहीं है । जैसा हम पहले देख चुके हैं, 'महावंस' के धम्मकित्ति-विरचित परिवद्धित अंश के अनुसार आचार्य बुद्धघोष ने 'अट्ठसालिनी' की रचना लंका से प्रस्थान करने के पहले ही की थी। यह बात ठीक नही हो सकती । लंका जाकर बुद्धघोष महास्थविर ने 'विसुद्धिमग्ग' लिखा, यह तो निश्चित ही है । उसके बाद ही 'अट्ठसालिनी' लिखी गई, यह हमें जानना चाहिये । इसका कारण यह है कि 'अट्ठसालिनी' के आरम्भ की गाथाओं में स्वयं आचार्य बुद्धघोष ने कहा है “सब कर्म-स्थान (समाधि के आलम्बन) चर्या, अभिज्ञा और विपश्यना का प्रकाशन म 'विसुद्धि-मग्ग' में कर चुका हूँ, इसलिये फिर उनका यहाँ विवरण नहीं करूंगा"१ आदि। अत: 'अट्ठसालिनी' को 'विसुद्धिमग्ग' के वाद की ही रचना मानना चाहिये । यह हो सकता है कि उसकी एक प्राथमिक रूपरेखा आचार्य बुद्धघोष ने यहाँ बनाई हो । प्रस्तुत रूप में तो वह निश्चित रूप से 'विसुद्धिमग्ग' से बाद की रचना है। अभिधम्म के जिज्ञासुओं के लिये 'अट्ठसालिनी' का कितना अधिक महत्त्व है, यह बताने की आवश्यकता नहीं । यह बड़ी प्रसन्नता की बात है कि प्रो० वापट द्वारा सम्पादित इस अट्ठकथा का देव-नागरी संस्करण भी प्रकाशित हो चुका है, जो राष्ट्र-भाषा हिन्दी के लिये एक मंगलकारी चिन्ह है । 'अट्ठसालिनी' के अलावा 'सम्मोह-विनोदनी' नाम की अट्ठकथा आचार्य बुद्धघोष ने विभंग
१. कम्मट्ठानानि सब्बानि चरियाभिञा विपस्सना। विसुद्धिमग्गे पनिदं यस्मा सब्बं पकासितं ॥आदि।