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अभिधम्मत्थसंग्रह के सिद्धान्तों का संक्षिप्त विश्लेषण
'अभिवम्मत्थ संग्रह ' ' में परमार्थ रूप से चार पदार्थों (धर्मों) की सत्ता मानी गई हैं, यथा चित्त, चेतसिक, रूप और निर्वाण | हेतुओं से युक्त चित्त को 'सहेतुक' और उनमे वियुक्त चित्त को 'अ-हेतुक' कहते हैं । हेतु का अर्थ है अभिधम्म में लोभ, द्वेष, मोह याअ-राग, अ-द्वेष और अमोह । इन मूल प्रवृत्तियों को लेकर ही मनुष्य किसी भी कार्य में प्रवृत्त होता है, अतः यही 'हेतु' कहलाते है । सहेतुक चित्त तीन प्रकार के होते हैं यथा, कुशल, अकुशल और अव्याकृत । कुशल, अकुशल और अव्याकृत से अभिधम्म में क्या तात्पर्य लिया जाता है, यह हम अभिधम्म-पिटक के अन्तर्गत धम्मसंगणि के विवेचन में देख चुके हैं । अव्याकृत सहेतुक चित्त दो प्रकार का होता है 'विपाक - चित्त' और 'क्रिया - चित्त' । विपाक और क्रिया (किरिया ) चित्तों मे क्या तात्पर्य है, यह भी हम विस्तार पूर्वक धम्मसंगणि के विवेचन में दिखा चुके हैं । 'विपाक - चित्त ' अव्याकृत इसलिये है कि पहले किये हुए कर्म का फल होने के कारण उसे न 'कुशल' ही कहा जा सकता है और न 'अकु - शल' ही । 'क्रिया सहेतुक चित्त' वह चित्त है जिसमें 'अ-लोभ', 'अद्वेष', और 'अमोह' ये तीन हेतु रहते तो हूँ किन्तु तृष्णा के क्षय के कारण इनका 'विपाक' नहीं बनना अर्थात् ये पुनर्जन्म के लिये कारण स्वरूप नहीं बनते । 'क्रिया महेतुक चित्त' अर्हतु का ही हो मकता है । वह चाहे अ-लोभ, अद्वेष, और अमोह के कारण कुछ कुशल कर्म भले ही सम्पादन करे, किन्तु अनासक्त होने के कारण उसका दह सब कर्म केवल 'क्रिया' मात्र ही होता है । वह आगे के लिये विपाक पैदा नहीं
करता ।
१. अभिधम्मत्थसंह, मूल पालि तथा आचार्य धर्मानन्द कोसम्बी-रचित उसकी पालि टीका 'नवनीत टीका' के सहित, देव नागरी लिपि में महाबोधि सभा द्वारा प्रकाशित, सारनाथ, १९४१ । भिक्षु जगदीश काश्यप ने अभिधम्म फिलॉसफी, जिल्द पहली में अभिधम्मत्थ संगह की विषय-वस्तु का अत्यन्त विशदतापूर्द क विश्लेषण किया है। साथ में रोमन लिपि में पालि-पाठ भी दे दिया गया है । २. तत्थ वुत्थाभिधम्मत्था चतुधा परमत्थतो । चित्तं चेतसिकं रूपं निब्बानमिति सब्बथा । अभिधम्मत्थसंगहो ।