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( ५१९ ) द्वेषादियुक्त व्यक्तियों का चित्त-शुद्धि के लिए स्वेच्छापूर्वक इन व्रतों को स्वीकार करना आवश्यक है । इस प्रकार उनके दोष शान्त हो जाते हैं।
शील या सदाचार के बाद विशुद्धि-मार्ग उस दूसरी ऊँची भूमिका का वर्णन करता है, जिसका नाम समाधि है। समाधि की परिभाषा करते हुए आचार्य बुद्धघोष ने कहा है 'कुसलचित्तेकग्गता समाधि' अर्थात् कुशल चित्त की एकाग्रता ही समाधि है । किसी एक आलम्बन (विषय) में चित्त और चेतसिक कर्मों को समान और सम्यक रूप से बिना विक्षेप और विकीर्णता के रखना ही चित्त की समाधि या समाधान (सम्यक् आधान) कहलाता है ।' समाधि के विषय में भी आचार्य बद्धघोष ने वही प्रश्न किये हैं जो शील के विषय में, यथा (१) समाधि क्या है ? (२) किस अर्थ में 'समाधि' है ? (३) समाधि के लक्षण, सार, प्रकटित रूप और आसन्न कारण क्या हैं ? (४) समाधि कितने प्रकार की है ? (५) समाधि का मलिन होना क्या है ? (६) समाधि का निर्मल होना क्या है? और (७) समाधि की भावना किस प्रकार करनी चाहिए? इनके उत्तरों का संक्षेप देना तो यहाँ असंभव ही होगा। केवल कुछ मोटी बातें ही कही जा सकती है। आचार्य बुद्धघोष ने समाधि का प्रधानतः दो भागों में विवरण किया है, यथा उपचार समाधि (२) अर्पणा समाधि । चार भागों में भी, यथा
(१) दुक्खा पटिपदा दन्धाभिज्ञा। (२) दुक्खा पटिपदा खिप्पाभिज्ञा। (३) सुखा पटिपदा दन्धाभिज्ञा। (४) सुखा पटिपदा खिप्पाभिजा।
जैसा अभी कहा गया, समाधि-स्कन्ध का विवरण 'विसुद्धिमग्ग' के ३-१३ परिच्छेदों में है । इन परिच्छेदों के नाम-विवरण के अलावा उनकी विषय-वस्तुका तो संक्षिप्त निर्देश भी यहाँ प्राय: असंभव ही है, अतः हम उनके नाम देकर उनकी विषय-वस्तु को इंगित मात्र करेंगे ।
१. एकारम्मणे चित्तचेतसिका समं सम्मा च अविक्खिपमान अविष्पकिण्णा च हुत्वा तिठ्ठन्ति, इदं समाधानं ति वेदितब्बं (पृष्ठ ५७)