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( ४८२ ) "भन्ते! आप किस नाम से पुकारे जाते है ? आपका नाम क्या है ?"
(किं नामोसि भन्तेति) "महाराज! मैं 'नागसेन' नाम से पुकारा जाता हूँ। सब्रह्मचारी भिक्षु मुझे यही कह कर बुलाते हैं। माता-पिता अपने बच्चों के इस प्रकार के नाम रखते हैं, जैसे 'नागसेन' , 'सूरसेन' आदि। लेकिन ये सब नाम केवल व्यवहार के लिए हैं। तात्विक दृष्टि से इस प्रकार का कोई व्यक्ति उपलब्ध नहीं होता ।
(न हेत्थ पुग्गलो उपलब्भतीति) बस, संप्रश्न और संवाद का पूरा क्षेत्र खुल गया !
“भन्ते ! नागसेन ! यदि यथार्थ में कोई व्यक्ति है ही नहीं तो आपको अपनी आवश्यक वस्तुएँ कौन देता है ? उन वस्तुओं का उपभोग कौन करता है ? पुण्य कौन करता है ? ध्यान कौन लगाता है ? आर्य-मार्ग और उसका फल निर्वाण कौन प्रत्यक्ष करता है ? . . . . . . भले-बुरे का फिर तो कोई कर्ता ही नहीं ? आपका कोई गुरु भी नहीं ? आप उपसम्पन्न भी नहीं ? आप कहते हैं आपको लोग 'नागसेन' नाम से पुकारते हैं। नागसेन है क्या ?
"क्या केश नागमेन हैं ?" "केश किस प्रकार नागमेन हो सकते है ?" "तो क्या नख, दाँत, चमड़ी, मांस, शरीर नागसेन हैं ?" "राजन् ! ये भी नहीं।" "तो क्या पञ्च स्कन्धों का संयोग नागसेन है ?" “नहीं महाराज !"
"तो क्या फिर रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार, विज्ञान, इन पांच स्कन्धों से कोई व्यतिरिक्त वस्तु नागसेन है ?" (कि पन भन्ते अञत्र रूपवेदनासंञासंखारविज्ञाणं नागसेनोति)
"नहीं महाराज !" (नहि महाराजाति) मिलिन्द राजा थक जाता है। उसकी बुद्धि आगे संप्रश्न करना नहीं जानती।
"भन्ते ! मै पूछते पूछते हार गया, फिर भी मैं यह न जान सका कि 'नागसेन' क्या है ? तो क्या 'नागसेन' केवल एक नाम ही है ? अन्ततः 'नागसन' है क्या