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( ४९४ । उपनिषदों की शैली का कोई स्पष्ट प्रभाव 'मिलिन्द पह' पर उपलक्षित नहीं होता, किन्तु इममें सन्देह नहीं कि श्वेतकेतु आरुणेय और प्रवाहण जैवलि (जिनके संवाद छान्दोग्य. ११८।३ और बृहदारण्यक ६।२।१ में आते है), आरुणि और याजवल्क्य (जिनके संवाद बृहदारण्यक ३।७।१ में आते है), आरुणि और श्वेतकेतु (छान्दोग्य (११), आदि अनेक ऋषियों के संवाद अपनी विचित्र विशेषता रखते हुए भी मिलिन्द और नागसेन के प्रभावशाली संवादों में अपनी पूर्णता प्राप्त करते हैं । इतिहास की दृष्टि से, विशेषत: पालि साहित्य के इतिहास की दृष्टि से, 'मिलिन्द पन्ह' का यह महत्व है कि उसमें पालि त्रिपिटक के नाना ग्रन्थों के नाम दे देकर, पाँच निकायों, अभिधम्म पिटक के सात ग्रन्थों, और उनके भिन्न भिन्न अंगों के निर्देशपूर्वक अनेक अंश उद्धृत किये गये हैं, जिनमे यह स्पष्ट प्रमाणित होता है कि पालि त्रिपिटक प्रथम शताब्दी ईसवी पूर्व अपने उमी नाम-रूप में विद्यमान था, जिसमें वह आज है। इस प्रकार 'मिलिन्द पञ्ह' का साध्य अशोक के अभिलेखों द्वारा प्रदत्त साध्य का समर्थन करता है । 'मिलिन्द पञ्ह' में अनेक स्थानों के वर्णन है, जैसे अलसन्द (अलेक्जेन्डिया) यवन (यूनान, बैक्ट्रिया) भरुकच्छ, (भडौंच) चीन (चीन-देश), गान्धार, कलिंग, कजंगला, कोसल, मधुरा (मथुरा) सागल. साकेत, सौराष्ट्र (मोरट्ठ) वाराणसी, वंग, तक्कोल, उज्जेनी, आदि । इनमे तत्कालीन भारतीय भूगोल पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। सारांश यह कि धर्म, दर्शन, माहित्य, इतिहास, भूगोल, सभी दृष्टियों से 'मिलिन्द पह' का भारतीय वाङ्मय के इतिहास में एक महत्वपूर्ण स्थान है और पालि अनुपिटक-साहित्य में तो उसके समान महत्वपूर्ण कोई दूसरा स्वतन्त्र ग्रन्थ है ही नहीं, यह तो निर्विवाद ही है। अन्य साहित्य
पालि त्रिपिटक के संकलन और अट्ठकथा-साहित्य के प्रणयन के बीच के युग में उपर्य क्त तीन ग्रन्थों (नेत्तिपकरण, पेटकोपदेस, मिलिन्दपन्ह)
१. देखिये रायस डेविड्स : दि क्विशन्स ऑव किंग मिलिन्द (मिलिन्दपञ्ह का
अंग्रेजी अनुवाद), सेक्रेड बुक्स ऑव दि ईस्ट, जिल्द ३५वीं, पृष्ठ १४ (भमिका)