________________
( ४९३ ) संभवतः कुछ पाश्चात्य विद्वानों ने यह अनुमान लगा लिया है कि 'मिलिन्द पञ्ह' की शैली पर ग्रीक प्रभाव उपलक्षित है। यह एक बड़ा भ्रम है। भारतीय पगधीनता के युग में अधिकांश पश्चिमी विद्वान यह विश्वास ही नहीं कर सकते थे कि भारत ने भी विश्व-संस्कृति को कुछ मौलिक योग-दान दिया है । इसी कारण उन्होंने अनेक प्राचीन भारतीय विशेषतापूर्ण बातो पर भी पश्चिमी प्रभाव की कल्पना कर ली है । अफलात के संवादों के प्रभाव को मिलिन्द पञ्ह की गेली पर बताने के समान और कोई निरर्थक बात नहीं कही जा सकती ! पहले तो ग्रीक भाषा और विचार मे नागसेन के परिचित होने का साक्ष्य नहीं दिया जा सकता, फिर जब उनके सामने प्राचीन उपनिषदो और स्वयं बुद्ध-वचनों के रूप में गम्भीर संवादों की परम्परा प्रस्तुत थी, तो वे उसे छोड़कर विदेश से उसे ग्रहण करने क्यों जाते ? वह समय तो भारतीय संस्कृति के गौन्व का या और हम समझते हैं भारतीय ज्ञान का वह गौरव ही 'मिलिन्द पन्ह' में प्रतिध्वनित हुआ है, जिसमे नमित होकर ही बुद्धिवादी मिलिन्द राजा बुद्धधर्म में उपासकत्व ग्रहण करता है । यह भारतीय ज्ञान की महान् विजय का द्योतक है--उस ग्रीक ज्ञान पर जिसकी पाश्चात्य जगत् बड़ी दम भरता है और जिनमे ही उसने अपना सारा ज्ञान वास्तव में प्राप्त भी किया है । 'मिलिन्दपह उन ज्ञान-विजय अथवा धम्म-विजय का स्मारक और परिचायक है, जिसे भारत ने उम समय के, अपने अलावा, सबसे अधिक ज्ञान-संपन्न देश पर प्राप्त किया था। इस दष्टि से वह भारतीय वाङ्मय के अमर रत्नों में से एक है । जहाँ नक 'मिलिन्द पञ्ह' की शैली के स्रोतों या उसकी प्रेरणा का सवाल है, वह निश्चय ही तेपटिक वुद्ध-वचनों में ही निहित है । दीघ-निकाय के 'पायासि-नुन' जैसे मुनों की जीवित संवाद-शैली उसकी प्रेरणा-स्वरूप मानी जा सकती है । 'कथावत्थु' के अप्रतिम आचार्य मोग्गलिपुत्त तिस्स के भी भदन्त नागसेन कम ऋणी नहीं है । यद्यपि इन दोनों ग्रन्थों का तुलनात्मक अध्ययन हम यहाँ विस्तार-भय के कारण नहीं कर सकते, किन्तु यह तो निश्चित ही है कि मोग्गलिपुत्त के समाधानों पर ही नागसेन के अधिकांश 'प्रश्न-व्याकरण' (प्रश्नों के उत्तर.) आधारित हैं और जिस मन्तव्य को वहाँ 'स्थविरवाद के रूप में अपनाया गया है, वही मन्तव्य ‘मिलिन्द पञ्ह' कार का भी है । यद्यपि