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प्रत्येक प्रश्न को पूछता है । अन्त में तो, जैसा हम पहले देख चुके हैं, वह उनका उपासक ही बन जाता है, और बुद्ध की, धम्म की और संघ की शरण जाता है, जो इतिहास के साक्ष्य के द्वारा भी प्रमाणित है।
'मिलिन्द पञ्ह' दार्शनिक और धार्मिक दृष्टि से तो एक महाग्रंथ है ही । साहित्यिक और ऐतिहासिक महत्त्व भी उसका अल्प नहीं है। यद्यपि स्थविरवाद बौद्ध धर्म का वह कण्ठहार है, जिसकी प्रतिष्ठा वहाँ बुद्ध-वचनों के समान ही मान्य है, वह भारतीय साहित्य की भी अमूल्य निधि है । यद्यपि लंका, बरमा और म्याम के समान भारत में उसकी आधुनिक लोक-भाषाओं में 'मिलिन्द पञ्ह संबंधी प्रचुर साहित्य नही लिखा गया, किन्तु इस कारण उसे उस गौरव से, जो 'मिलिन्द पञ्ह' ने भारतीय साहित्य को दिया है, वंचित कर देना ठीक नहीं होगा। 'मिलिन्द पञ्ह' प्रथम शताब्दी ईसवी पूर्व की प्रभावशाली भारतीय गद्य-शैली का मानम नमूना है। विवेचनात्मक विषयों के लिए उपयुक्त हिन्दी की गद्य शैली का ती विकास हमारे माहित्य में अभी हुआ है। अंग्रेजी साहित्य की भी इस संबंधी परम्परा १००-२०० वर्ष से पहले नहीं जाती। बाण और दंडी का गद्य भी निश्चय ही इसके लिए उपयुक्त नहीं था। इस दृष्टि से 'मिलिन्द पह' की विचारात्मक गद्य-बद्ध शैली कितनी महत्वपूर्ण है, इसका सम्यक् अन्मापन ही नहीं किया जा सकता । लेखक का शब्दाधिकार और उसकी शैली की प्रवाहगीलता, उसका ओजमय शब्दचयन, प्रभावशाली कथन-प्रकार, उपमाओं और यक्तियों के द्वारा उसका स्वाभाविक अलंकार-विधान, सवसे बढ़कर उसकी सरलता और प्रसादगुण, ये सब गुण उसे साहित्यिक गद्य के निर्माताओं की उस श्रेणी में बैठा देते है, जहाँ उसका तेज सर्वोपरि है ।' प्राचीन भारतीय गद्य-साहित्य में 'मिलिन्द पह' के समान कोई रचना न पाकर ही
१. पुण्य श्लोक डा० रायस डेविड्स 'मिलिन्द पञ्ह' की गद्य शैली के बड़े प्रशंसक थे।
देखिये उनके मिलिन्दपञ्ह के अंग्रेजी अनुवाद, (दि क्विशन्स ऑफ किंग मिलिन्द, सेक्रेडनुकस ऑफ दि ईस्ट, जिल्द ३५ वीं का भूमिकांश तथा एन्साइ क्लोपेडिया ऑव रिलिजन एंड एथिक्स जिल्द ८, पृष्ठ ६३१; मिलाइये विटरनित्ता : इंडियन लिटरेचर, जिल्द दूसरी, पष्ठ १७६ ।