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'बुद्धघोष' अनुपिटक साहित्य का सब से बड़ा नाम है । आचार्य बुद्धघोप ने बुद्धशासन की सेवा और उसकी चिरस्थिति के लिये जितना अधिक काम किया है, उतना शायद ही अन्य किसी व्यक्ति ने किया हो । पालि साहित्य को जो कुछ उन्होंने दिया है वह आकार और महत्त्व दोनों में ही इतना महान् है कि यह समझना कठिन हो जाता है कि एक जीवन में इतना काम कैसे कर लिया गया। इन महापुरुष की जीवनी की पावन अनुस्मृति पहले हम करें। आचार्य बुद्धघोष ने अन्य अनेक भारतीय मनीषियों की तरह अपने जीवन के विषय में हमें अधिक नहीं बताया है। केवल अपनी अट्ठकथाओं के आदि और अन्त में उन्होंने कुछ मुचनाएँ दी है, जो उनकी रचना आदि पर ही कुछ प्रकाश डालती हैं अथवा जिनकी प्रेरणा पर, और जिस उद्देश्य से वे लिखी गईं, उनके विषय में वे कुछ संक्षेप से कहती है, किन्तु मनुष्य रूप में बुद्धघोष के विषय में हमें उनमे कुछ सामग्री नहीं मिलती। यह पक्ष सम्भवतः बुद्धघोष के लिये इतना अमहत्त्वपूर्ण था कि उसे उन्होने अपने महत् उद्देश्य में ही खो दिया है। उपनिषदों के ऋषियों ने भी ऐसा ही किया है और भारतीय मनीषियों की यह एक निश्चित परम्परागत प्रणाली ही रही है कि अपने साधारण व्यक्तिगत जीवन के विषय में उन्होंने कुछ कहना उचित नहीं समझा है । उनकी यह निर्वैयक्तिकता उनके सन्देश को निश्चय ही एक अधिक बल प्रदान करती है, इसमें सन्देह नहीं, किन्तु मनुष्य होने के नाते हम उनके मानव-रूप को भी जानना चाहते ही हैं । और उससे इस अवस्था में जानने का अवकाश नहीं रह जाता। बुद्धघोष की जीवनी को जानने के लिये उनकी अट्ठकथाओं में दी हुई थोड़ी बहुत सामग्री के अतिरिक्त प्रधान साधन है (१) महावंस या ठीक कहें तो चूलवंस' के सेंतीसवें परिच्छेद की २१५-२४६ गाथाएँ (२) बुद्धघोसुप्पत्ति या महाबुद्धघोसस्म निदानवत्थु (३) गन्धवंस (४) सासनवंस (५) सद्धम्म संगह । 'महावंस' का उपर्युक्त परिवद्धित अंश जिसमें बुद्धघोष की जीवनी वर्णित है धम्मकित्ति (धर्मकीर्ति) नामक भिक्षु की रचना है, जिनका काल तेरहवीं शताब्दी का मध्य-भाग है । चूंकि बुद्धघोष का जीवन-काल चौथी-पाँचवी
४. ३७१५० तक महावंस है। उसके बाद का परिवद्धित अंश चूलवंस के नाम
से प्रसिद्ध है। देखिये आगे नवे अध्याय में वंश-साहित्य का विवेचन ।