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( ५०७ ) शताब्दी ईसवी है, अतः उनके आठसौ नौ सौ वर्ष बाद लिखी हुई उनकी जीवनी सर्वांश में प्रामाणिक नहीं मानी जा सकती, यह तो निश्चित ही है । फिर भी सब से अधिक प्रामाणिक वर्णन जो हमें बुद्धघोष की जीवनी का मिलता है वह यही है । 'गन्धवंस' और 'सासन वंस' तो ठीक उन्नीसवीं शताब्दी की रचनाएं हैं, अतः उनका इस सम्बन्ध में प्रामाण्य नहीं माना जा सकता। 'बुद्धघोसुप्पत्ति' धम्मकित्ति महासामि (धर्मकीति महास्वामी ) नामक भिक्षु की चौदहवीं शताब्दी के अन्तिम भाग की रचना है, जो महावंस के उपर्युक्त अंश के बाद किन्तु गन्धवंस और सासन वंस से पहले की रचना है । इस रचना में इतनी अतिशयोक्तियाँ भरी पड़ी है कि इसके भी प्रामाण्य को सर्वांश में नहीं माना जा सकता। केवल महावंस के उपर्युक्त अंश का वर्णन ही प्रायः इस सम्बन्ध में अधिक प्रामाणिक माना जाता है। उसके अनुसार बुद्धघोष की जीवनी की रूपरेखा यह है--आचार्य बुद्धघोष का जन्म गया के समीप बोधिवृक्ष के पास हुआ। बाल्यावस्था में ही शिल्प और तीनों वेदों में पारंगत होकर यह ब्राह्मण विद्यार्थी बाद-विवाद के लिये भारतवर्ष भर में घूमने लया। ज्ञान की बड़ी उत्कट जिज्ञासा थी। योगाभ्यास में भी बड़ी रुचि थी। एक दिन रात में किसी विहार में पहुंच गया। वहाँ पातंजल मत पर बड़ा अच्छा प्रवचन दिया। किन्तु रेवत नामक वौद्ध स्थविर ने उन्हें बाद में पराजित कर दिया। इन बौद्ध भिक्षु के मुख से बुद्ध-शासन का वर्णन सुनकर बुद्धघोष को विश्वास हो गया 'निश्चय ही (मोक्ष का) यही एक मात्र मार्ग है' (एकायनो अयं मग्गो) और उन्होंने प्रव्रज्या ले ली। प्रव्रजित होकर उन्होंने पिटक-त्रय का अध्ययन किया। वास्तव में भिक्षु होने से पहले बुद्धघोष एक ब्राह्मण विद्यार्थी (ब्राह्मणमाणवो) मात्र थे। बाद में भिक्ष-संघ ने उनके घोप को बुद्ध के समान गम्भीर जानकर उन्हें 'बुद्धघोप' की पदवी दे दी ।' जिम विहार में उनकी प्रव्रज्या हुई थी वहीं उन्होंने जाणोदय (ज्ञानोदय) नामक ग्रन्थ की रचना की। इसके बाद यहीं उन्होंने 'धम्मसंगणि' पर 'अट्ठसालिनी' नाम की अट्ठकथा भी लिखी
१. बुद्धस्स विय गम्भीरघोसत्ता नं वियाकरूं।
बुद्धघोस ति सो सोभि बुद्धो विय महीतले॥