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सातवाँ अध्याय
बुद्धघोष - युग
( ४०० ई० से ११०० ई० तक )
अर्थ कथा - साहित्य का उद्धव और विकास
गया,
बौद्ध अनुश्रुति के अनुसार स्थविर महेन्द्र और उनके साथी भिक्षु पालित्रिपिटक के साथ-साथ उसकी 'अट्ठकथा' को भी अपने साथ लंका में ले गये । यह निश्चित है कि जिस रूप में यह 'अट्ठकथा' लंका में ले जाई गई होगी वह पालि-त्रिपिटक के समान मौखिक ही रहा होगा । प्रथम शताब्दी ईसवी पूर्व जत्र लंकाधिपति वट्टगामणि अभय के समय में पालि - त्रिपिटक लेख-बद्ध किया तो उसकी उपर्युक्त 'अट्ठकथा' के भी लेखबद्ध होने की कोई सूचना हम नहीं पाने । अतः महेन्द्र द्वारा लंका में पालि- त्रिपिटक की 'अट्ठकथा' भी ले जाये जाने का कोई ऐतिहासिक आधार हमें नहीं मिलता । उन अट्ठकथाओं का कोई अंग आज किसी रूप में सुरक्षित नहीं है । हाँ, एक दूसरी प्रकार की 'अट्ठकथाओं' के अस्तित्व का साक्ष्य हम सिंहल के इतिहास में अत्यन्त प्रारम्भिक काल से ही पाते हैं । ये प्राचीन सिंहली भाषा में लिखी हुई अट्ठकथाएं हैं | जैसा हम आगे अभी इसी प्रकरण में देखेंगे, आचार्य बुद्धघोष इन्हीं प्राचीन मिहली अट्ठकथाओं का पालि रूपान्तर करने के लिये लंका गये थे । चौथी पाँचवीं शताब्दी ईसवी में केवल बुद्धघोष, बुद्धदत्त और धम्मपाल आदि के द्वारा रचित विस्तृत अट्टकथा-साहित्य, बल्कि प्राग्बुद्धघोषकालीन लंका का इतिहास ग्रन्थ 'दीपवंस' और बाद में उसी के आधार - स्वरूप रचित 'महावंस' भी अपनी विषय-वस्तु मूल आधार और स्रोतों के लिये इन्हीं प्राचीन सिंहली अट्टकथाओं के ऋणी हूँ | महावंस-टीका (६३।५४९-५५० ) के आधार पर गायगर ने यह सिद्ध करने का
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१. देखिये समन्तपासादिका की बहिरनिदानवण्णना ।