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अट्ठकथाओं की प्रामाणिकता उतनी सबल नहीं होती, यदि ये परम्परा से प्राप्त प्राचीन सिंहली अट्ठकथाओं पर आधारित नहीं होतीं । चूंकि ये उनकी ऐतिहासिक परम्परा पर आधारित हैं, अतः इतनी आधुनिक होते हुए भी बुद्ध-युग के सम्बन्ध में इनका प्रामाण्य मान्य है, यद्यपि स्वयं त्रिपिटक के बाद | चौथी - पाँचवीं शताब्दी में प्रायः समकालिक ही तीन बड़े अट्ठकथाकार पालि साहित्य में हुए हैं, बुद्धदत्त, बुद्धघोष और धम्मपाल । इनके बाद कुछ और भी अट्ठकथाकार हुए, जिनका विवरण हम बाद में देंगे। अभी हम इन तीन आचार्यों के जीवन और कार्य पर विहंगम दृष्टि डालें ।
बुद्धदत्त की जीवनी और रचनाएँ
बुद्धदत्त और बुद्धघोष समकालिक थे, यह 'बुद्धघोसुप्पत्ति' (बुद्धघोष की जीवनी) और 'गन्धवंस' तथा 'सासनवंस' (१९वीं शताब्दी के वंश - ग्रन्थ ) के वर्णनों से ज्ञात होता है । 'बुद्धघोसुप्पत्ति' के वर्णनानुसार आचार्य बुद्धदत्त, बुद्धघोष से पहले लंका में बुद्ध वचनों के अध्ययनार्थ गये थे । अपने अध्ययन को समाप्त कर जिस नाव से लौट कर वे भारत ( जम्बुद्वीप) आ रहे थे, उसका मिलान उस नाव से हो गया जिसमें बैठकर इधर से आचार्य वृद्धघोष लंका को जा रहे । दोनों स्थविरों में धर्म-संलाप हुआ । कुशल-मंगल और एक दूसरे का परिचय प्राप्त करने के बाद, आचार्य बुद्धघोष ने उन्हें बताया “बुद्ध उपदेश सिंहली भाषा में हैं । मैं उनका मागधी रूपान्तर करने लंका जा रहा हूँ" । बुद्धदत्त ने उनसे कहा “आवुस बुद्धघोष ! में भी तुमसे पूर्व इस लंका द्वीप में भगवान् के शासन को सिंहली भाषा से मागधी भाषामें रूपान्तरित करने के उद्देश्य से आया था । किन्तु मेरी आयु थोड़ी रही है । मैं अब इस काम को पूरा नहीं कर सकूंगा । " " जब इस प्रकार दोनों स्थविरों में आपस में बातचीत चल रही थी तभी दोनों नावें एक दूसरी
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१. “ आवुसो बुद्धघोस अहं तया पुब्बे लंका दीपे भगवतो सासनं कातुं आगतोम्हि ति वत्त्वा अहं अल्पायुको.. बुद्धघोसुपपत्ति, पृष्ठ ६० ( जेम्स ग्रे का संस्करण ), यही वर्णन बिलकुल 'सासनवंस' में भी है, देखिये पृष्ठ २९-३० मेबिल बोड का संस्करण)
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